मन के घाव
ये
जो संग्रहालय में
बड़ी बड़ी
कलाकृतियाँ देख रहे हो न
ये वही मन के घाव हैं
जो तुमने दिए थे
और मैंने
सहेज कर रख लिए थे
हर टीस
मानों
पत्थर पर पड़ता हथौड़ा
और उस काँटे से
मैं उकेर लेती थी
कोई रेखा
जैसे
सूई कपड़े को बींधकर
कर देती है कढ़ाई
ये जो
रंगों की आँख मिचौली देख रहे हो न
ये मेरे दर्द की
तीव्रता का बोध है
तुम्हारे दिए
आरे जैसे घाव
की मैंने आरा पहेली सुलझाई
और कलाकृति दिखाई
तुमने सुना होगा
बिना तपे सोना नहीं बनता
बिना कटे कपड़ा नहीं सिलता
मैंने तो
इसे जिया है।