मन की बात-४:”चंदन”
आज के 30 से 40 वर्ष पहले बचपन में दीवाली के दूसरे दिन बच्चों में जल्दी सुबह उठने का competition रहता था ।
जो जल्दी उठ गया , वही अपने आप को इंद्र के समान ऐश्वर्यशाली समझता था ।
क्योंकि दीपावली में जितने मिट्टी के दीपक जले रहते थे ,उसको बच्चे इकट्ठा करते थे ।
जिसके पास जितना ज्यादा , वह मानो ज़ायदाद का मालिक हो ।
गाँवों में हर जगह मिट्टी के दीपक से प्रकाशित किया जाता था ।
लोगों के खेत खलिहान दूर दूर रहते थे तो हर जगह दीपक जलाना आवश्यक होता था ।
कुआँ , तालाब , पोखरी , बगीचा , Tubewell, दलान , ओसारा , हाता सभी जगह दीपक रखा जाता था ।
एक बड़ा दीपक आँगन में या घर के उस स्थान पर रखा जाता था , जहाँ लोगों ने मिट्टी के नीचे या भूमि में अपना धन, पूर्वजों के सिक्के, जेवर , हीरे जवाहरात छुपाए रखते थे ।
यहाँ तक कि बगीचे में लोग अपने हर लगे हुए पेड़ तक के नीचे दीपक रखते थे ।
किसी के पास ट्रैक्टर भी रहता था तो उस पर भी दीपक जलाया जाता था ।
कुँवा को तो दीपक से सजा दिया जाता था और उसके चबूतरे पर रंगोली भी बनाई जाती थी ।
गाँव के मंदिर में सभी घर या परिवार की तरफ से दीपक जलाया जाता था ।
गाँव में एक घूर होता है । यह वह स्थान होता है जहाँ कूड़ा फेंका जाता है । यही कूड़ा बाद में सड़कर खाद बन जाता था जिसे खेतों में डाल दिया जाता था ।
इस स्थान पर भी दीपक जलाया जाता था । अपने घर के रास्ते और पगडंडी को भी दीपक से सजाया जाता था ।
दीपावली आने से पहले घर की साफ सफाई होती थी ।
घर की दीवारों पर घर की मुख्य स्त्री अपने हाथ से गेरू यआ चूना का छापा लगाती थी । चावल को पीस कर उसे गीला कर उसकी सफेदी से छापा लगाया जाता था ।
यह काम घर की सबसे बड़ी स्त्री करती थी । ऐसा लगता था मानो घर की दीवारों पर line से हाथ का छापा बना हो ।
यह इसलिए किया जाता था क्योंकि स्त्री को घर की लक्ष्मी माना जाता था । उसके हाथ द्वारा इतनी बड़ी गृहस्थी का निर्माण हुआ है , तो उसी के हाथ का छापा घर की शोभा होती थी।
इसे हथौटी बोला जाता था । यह शुभ माना जाता था । सभी घरों की दीवारों पर गृहलक्ष्मी के हाथों का छाप होता था ।
जिस घर में यह नहीं होता था , उस घर को अमंगलकारी माना जाता था ।
हमारे यहाँ हमारी माई ( दादी ) के हाथों का छापा होता था ।
आज तो ख़ैर सब ख़त्म हो गया , विलुप्त हो गया , क्योंकि अब महिला सशक्तिकरण जो हो गया है।
देखिये कितनी बड़ी महत्ता स्त्रियों को हमारी संस्कृति में मिला है ।
फिर भी नालीवादियाँ गंधाती रहती हैं ।
हाँ तो मैं बता रहा था कि मिट्टी के दीपक को लूटने की होड़ मचती थी ।
जो बच्चा देरी से सोकर उठा , वह मानो संसार का सबसे अभागा व्यक्तित्व हो ।
जो बंटोरे हुए दीपक रहते थे , बच्चे उसमें सूजा ( लोहे की बड़ी सी सुई ) लेकर कोनों में छेद करके उसमें रस्सी डालकर उसका तराजू बनाते थे ।
उसी तराजू से अन्न तौलकर तौलकर बच्चे असीम आनंद का अनुभव करते थे ।
क्या आनंद था ।
अब तो सब विलुप्त हो गया ।
होली पे पानी मत बर्बाद करो , रंग मत खेलो करके उसे खत्म कर दिया गया ।
दीवाली पर तेल मत बर्बाद करो , पटाखे मत जलाओ , मिठाई मत खाओ , बोल बोलकर खराब कर दिया गया ।
जन्माष्टमी पर हमारे गाँव में कृष्ण लीला होती थी जो एक हफ्ते चलता था । पहले घर घर में ( शहरों की बात कर रहा हूँ ) भगवान कृष्ण की सुंदर सुंदर झाँकियाँ सजाई जाती थी जो दो दिन पहले ही लग जाती थी । हम लोग शाम होते ही हर जगह झाँकियाँ देखने जाते थे ।
लेकिन आज आधुनिकता ने पैसों की चकाचौध ने सब खत्म कर दिया ।
आज झांकी के नाम पर सब शून्य ।
पैसा पैसा पैसा बस पैसा और बच्चों को आधुनिक बनाने के नाम पर सबका क्षरण ।
लेकिन आपका यह कर्तव्य बनता है कि बच्चों को अपनी संस्कृति , सभ्यता , पुरातन संस्कार , नैतिकता से जोड़कर रखें तभी आपका भविष्य सुखमय हो सकता है ।
वरना वृद्धावस्था में बिस्तर पर ही मल मूत्र करके गंध मारते रहना , रोते रहना , एक गिलास पानी तक के लिए रिरक रिरक कर क्रंदन करना और तुम्हारा वह धन पशु किसी पार्टी में अपनी छम्मों के साथ शराब के ज़ाम छलका रहा होगा ।
और फिर यही फिर उसके साथ होगा और यह श्रृंखला निरंतर बढ़ती जाएगी ।
धन्यवाद ।
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