मन की तहें***
मन की तहें उधेड़
फिर से सिलना चाहूं
न जाने क्या क्या मैं
लिखना चाहूं….
पर वो कहां
लिख पाती हूं
जो मैं लिखना चाहूं…
अज्ञात भय के
आवरण के पीछे
होकर बेबस और लाचार,
वो नहीं कह पाती हूं
जो मैं कहना चाहूं….
उत्श्रृंखल नदी
उन्मुक्त विचारों की,
बांध में बन्ध जाती है
पन्नों तक आते आते,
हो जाती है विशाल,
पर खो देती है…
अपना अस्तित्व
बस ठहर जाती है !!