मन की गिरहें..
मन की गिरहें,
यूँहीं नहीं बनती
की हर गिरह का..
अपना दर्द है
अपनी कहानी ,
और ये गिरहें
इस तरह चुभती हैं ,
की छीन लेती हैं
आंखों से उजाले,
होंटों से मुस्कान
दिल से धड़कन ,
और सांसे भी।
कि इन गिरहों का बोझ,
इतना भारी होता है
की अक्सर रूह,
कराह उठती है
आज़ाद होने को,
इन गिरहों और इनकी
कसक और चुभन से,
ये मन की गिरहें..
नदी में पत्थर सी अविचलित,
न बहती हैं,
न खत्म होती हैं।
सुखा डालती हैं,
एक पूरी नदी
और रेत के ऊंचे ऊंचे,
टीलों को उभार देतीं हैं
जिन पर कभी ,
उग नहीं पाती
एक दुब ही..