मन की गाँठें
मैं शब्दों का हूँ सौदागर, भावों को तौल रहा हूँ।
आज लहू से मन की गाँठें, धीरे से खोल रहा हूँ।।
छंद-अलंकारों की भाषा, न करूँ मंचों की आशा।
तन की बातें समझें मन से, अंतर्मन की परिभाषा। मीठी यादें अपने भीतर, होले-से घोल रहा हूँ।
आज लहू से मन की गाँठें, धीरे से खोल रहा हूँ।।
जीवन-पथ पर चलता साथी, संग दिया ओ बाती। वाणी मधुमय रस बरसाती, कंठ सदा ही मितभाषी । खट्टे-मीठे अनुभव के ही, फिर समय टटोल रहा हूँ। आज लहू से मन की गाँठें, धीरे से खोल रहा हूँ।।*
– Shubham Anand Manmeet