मन की आँखें खोल
आँख मूंद लें चाहें वंदे मन की आँखें खोल।
घोटालों में घुटी जिंदगी खोल जरा तू पोल।।
वंदे मन की आँखें खोल।।
मानव आज बना व्यापारी।
इससे सारी दुनिया हारी।
फँसा मोह माया में बैठा –
बन कर के व्यभिचारी।।
सच से त्याग चुका ये रिश्ता रहा झूठ अब बोल।
आँख मूंद लें चाहें वन्दे मन आँखें खोल।।
कदम कदम पर धोखेबाजी।
हर कोई इसमें ही राजी।।
भूला अपने धर्म कर्म को –
बन कर बैठा है अब गाजी।।
बिना किये ही चाहें सब कुछ यह है इसकी झोल।
आँख मूंद लें चाहें वन्दे मन की आँखे खोल।।
प्रेम भाव की बात न आती।
सच्चाई मन को न भाती।
छल छंदों से भरी जिंदगी –
फूटी आंख न प्रीति सुहाती।।
कौड़ी -कऔडई़ बिकता जीवन बाकी रहा न मोल।
आँख मूंद ले चाहे वन्दे मन की आँखें खोल।।
स्वरचित मौलिक सृजन
कौशल कुमार पाण्डेय ‘आस’