मन का संशय….
मन का संशय मिटे नहीं,
मन बड़ा चंचल रुके नहीं,
ज्ञान के सम्मुख टिके नहीं,
जब रहता खाली सुने नहीं,
कर्म करते रहो, रुकना नहीं,
सत्य के साथ बढ़ो, झुकना नहीं,
मन की अति लालसा सही नहीं,
रातों में फिर सुख की नींद नहीं,
जहाँ मिले सुख और आनन्द,
राह ऐसी बची है अब चंद,
सुने कौन अब आनन्द के छंद,
मुस्कुराहट भी लेते होकर मंद,
मन में उठते प्रश्न हजार,
उत्तर मिले न कोई सार,
सुनता कोई नहीं हैं यार,
सब हैं मन के होशियार,
सुन कर मन हैं विचलित,
क्यों अहं में रहता लिप्त,
क्यों रचता छल नित नित,
कब होगा तेरा शुध्द चित्त,
क्यों करता है तू अपमान,
सबका होता अपना मान,
एक बार देख, ले मुस्कान,
हर विपदा लगेगी आसान,
जैसे को तैसा नहीं यह हल,
पेड़ हमेशा देते आए फल,
नदियाँ देती है सबको जल,
परहित से ही है सुंदर कल,