मन का बोझ
अपनों की उपेक्षा व असंवेदना ने
कर दिया था उसे कुंठाग्रस्त।
लोगों के सर्द व्यवहार से उसके
मन मस्तिष्क पर फैल गई थी-
बर्फ की एक मोटी परत।
जड़ हो गई थी उसकी संचेतना
और जीवन हो गया था भार,
लगता था वह स्वयं ही ढो रही है अपनी लाश।
उनके भाव पूर्ण स्पर्श से,
स्नेह की गर्माहट से-
विगलित होने लगी थी मन मस्तिष्क
पर छाई बर्फ की परत।
मन की कुंठा अश्रु बन कर
आँखों से लगी बहने।
हट गया था उसके मन का बोझ।
हल्का होकर लगी ऊँचे ऊँचे उड़ने
और अच्छी बातें सोचने।
अब उसे हर पल सरस
और अपना लगने लगा था।
जयन्ती प्रसाद शर्मा