मन का डर
काँप उठता है बदन और धड़कने बढ़ जाती है
लफ्ज़ रूकते है जुबां पर साँसे भी थम जाती है
लाल हो जाती है नज़रे भौंह भी तन जाती है
सैकड़ो ख्याल मन को पलभर में घेर जाती है
खून बेअदबी पुरे तन में बेधड़क है भागता
नीद से आँखे भरी पर रात भर है जागता
मन किसी भी काम में अब कहीं लगता नहीं
अपने ही जज्बातों पर ज़ोर तब चलता नहीं
गर्मियों के दिन मे भी ये जिस्म ठंडा पर गया
है वो ज़िंदा अब भी लेकिन लगता जैसे मर गया
बेखयाली बादहवसी हाल कैसा हो गया
तन से वो जागा हुआ है मन से पूरा सो गया
शब्द बाकी है मगर ये होंठ कह ना पाएंगे
दर्द चाहे कोइ भी हो सब बे असर हो जाएंगे
है पसीना माथे पर और होठ भी सूख जाते है
पीठ सीधी होती नहीं और कंधे भी झुक जाते है
कोई कुछ भी बोल दे पर याद कुछ रहता नहीं
दिल में रहता है मगर दिमाग में टिकता नहीं
क्या है कहना क्या है सुनना कुछ समझ आता नहीं
एक बार डर जो आया आके फिर जाता नहीं