मन करता है
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विस्मृत तुम्हे बेमन से
करना चाहता हूँ,
गुड़ खाते हुए गुलगुले
से दूर चाहता हूँ।
मन करता है बेशक
तुमसे दूर ही रहूँ,
पर दूर रहने की कोशिश
भी कहाँ करता हूँ।
तन व मन के बीच ये
कैसा अंतर्द्वंद्व है,
चढ़ाई लोहे की हाड़ी
पर आँच एकदम मंद है।
कैसे एक अनाम द्वंद्व में
फंस कर रह गया हूँ,
निकलना चाहता बहुत,पर
प्रयास कहाँ कर पा रहा हूँ।
इस रिश्ते को क्या नाम दूँ?
बेनाम चाहता भी नही,
सोच कर थक चला हूँ
क्या मझदार में रखना ही सही?
चलो संशय में ही छोडू उसे
देखूं उसका अगला रंग,
समर्पित उसका व्यवहार होगा
या पड़ेगा फिर रंग में भंग।
निर्मेष ये कैसी उलझन है
जो जीने देती नही,
अगर मरना भी चाहे
तो चैन से मरने भी देती नही ।
निर्मेष