*मन अयोध्या हो गया*
मन अयोध्या हो गया
जीवन के इस पड़ाव पर सोचा था मन को राम कर लूं।
अपनी ही धृष्टता पर,
स्वयं से लड़ गई मैं,
शक्ति लगाकर हारी,
मन को न राम कर सकी मैं।
वह धीरज वह संयम,
राम सा नहीं है मुझ में,
वह अंतहीन मर्यादा,
राम सी कहां से लाऊं।
एक वचन पर सारे सुख,
त्यागने की क्षमता नहीं है मुझमें
कैकई सा छल समझ कर
वह क्षमा कहां से लाऊं।
शत्रु को गले लगा लूं,
वह साहस नहीं है मुझमें,
रिश्तों के प्रति राम सा,
समर्पण कहां से लाऊं।
शबरी का जूठा चखने की
सहजता नहीं है मुझमें,
निषाद सा मित्र बनाने की
सरलता कहां से लाऊं।
देर से सही समझ गई मैं
राम सा सरल नहीं है,
मन को राम करना,
राम सिर्फ राम हैं एक ही राम हैं।
व्यथित हृदय ले बंद आंख कर,
तिमिरमय हो गई मैं,
तब राम की कृपा से,
छलका विचार बिंदु।
मन को न राम कर सकी,
राम की अयोध्या ही कर लूं,
छोटे से रामलला को,
क्यूं न मन में बसा लूं।
राग द्वेष दूर कर,
मन को बुहार लूं,
आस्था के दीप से,
मन को उजियार लूं।
एक नहीं लक्ष दीप,
मन में झिलमिला उठे,
सर्व अंग आत्मा,
दिव्यता से भर उठे।
राम के विचार से,
राम पग आहट से,
मन मेरा अयोध्या हो गया
मन अयोध्या हो गया।।
आभा पाण्डेय
(स्वरचित)
22.1.2024