मनुष्य में पशुता और पशुओं में सहिष्णुता!!
मानव में मानव नहीं दिखता,
बढ़ रही है मानव में पशुता,
इधर पशुओं का व्यवहार भी बदल रहा है,
अब उसमें हिंसा की जगह सहिष्णुता का भाव दिखता है,
मानव ने अपने को ना जाने कितने खांचों में बांट दिया है,
और हर बात पर उसमें बढ़ रही हिंसा है,
हम ऊंच नीच में बंटे हैं,
अमीर-गरीब में सिमटे है,
जात पात में,
धर्म-संप्रदाय में,
स्त्री-पुरुष में
गोरे और काले में,
हिंसक और अहिंसक में,
प्यार और घृणा में,
गुण और अवगुण में,
बिरोध और भक्ति में,
विश्वास और अविश्वास में
सदियां बीत गई कितनी,
हमको यह समझने में,
मनुष्य क्यों हिंसक हुआ जा रहा है,
शिक्षित होने पर भी बढ़ रही है अशिष्टता!
इधर पशुओं को हम देख रहे हैं,
वह अपनी भूख तक ही सिमटे है,
इसके अतिरिक्त नहीं कोई लालसा ,
बस अपने-अपने आहार तक ही है सिमटा ,
वह हर हाल में रह लेता है,
मनुष्य के संग भी वह जी लेता है,
अंन्य प्रजातियों के संग भी घुल मिल लेता है,
यह तो हम अपने घर आंगन में ही देख सकते हैं,
कुत्ते बिल्ली एक संग घर के मालिक के साथ रह लेते हैं,
खुब आंख मिचौली भी करते रहते हैं,
गाय भैंस एक ही नांद में घास चुगते है,
एक ही बर्तन पर पानी पी लेते हैं,
घोड़े गधे भी संग संग रहते हैं,
भेड़ बकरियां भी एक संग चुगते है,
अब तो कुत्ते-बंदर भी साथ दिखते हैं,
अजायबघरों के तो खेल ही निराले हैं,
एक संग भिन्न भिन्न प्रजातियों के जानवर डाले हैं,
यह एक साथ अठखेलियां करते हुए दिखते हैं,
बिना किसी की भाषा-बोली को समझे भी,
एक साथ खेलते डोलते है,
कहीं पर भी नहीं करते हैं किसी की भावनाओं का अतिक्रमण,
ना ही करते हैं किसी पर नाहक आक्रमण,
प्रेम भाव से जीना है तो कोई इनसे सीखे,
कैसे परिस्थितियों में ढलना है तो इनसे सीखे,
ना ही कोई कपट,ना ही कोई छीना झपटी,
अपने हिस्से की खाते हैं,
और फिर विश्राम फरमाते हैं,
जो छूट जाए,उस पर ना कोई अधिकार जताते हैं,
भेड बकरियों को देख लो,
कितने मेल जोल से रहते हैं,
एक दूसरे के शरीर पर,सिर रख कर सो लेते हैं,
कहीं कोई किसी पर अहसान नहीं जताता,
ना ही कोई किसी को पराया होने का बोध कराता,
यह सबकुछ कितना खास है,
क्या नहीं यह अपने पन का अहसास है!
इधर हम मनुष्य गण भी क्या जीव हैं,
बिला वजह के भी झगड़ने की वजह ढूंढते हैं,
हम खेत-खलियान पर झगड़ते हैं,
हम मकान-दूकान पर झगड़ते हैं,
हम ऊंच-नीच के नाम पर झगड़ते हैं,
हम जात पात पर भी झगड़ते हैं,
हम गांव-मोहल्लों के लिए झगड़ते हैं,
हम अमीर-गरीब पर झगड़ते हैं,
हम धर्म-संप्रदाय पर झगड़ते हैं,
कहीं हिन्दू मुस्लिम पर झगड़ते हैं,
तो कहीं ईसाईयत-व गैर ईसाईयत पर झगड़ते हैं,
कभी हम सर्वोच्च होने का दंभ भरते हैं,
तो कहीं पर हम आर्थिक साम्राज्य पाने को झगड़ते हैं,
कहीं पर हम विकसित होने पर अडे है,
तो कहीं पर हम विकसित होने के लिए जूझने को खड़े हैं,
हमारी लड़ाई की अनेक गाथाएं हैं,
हम श्रेष्ठता की अगुवाई में खड़ी करते बाधाएं हैं,
हम अपने हितों के लिए पड़ोसियों को लडा सकते हैं,
अपने अस्त्र-शस्त्र की बिक्री बढ़ाने को लड़ाई छिड़ा सकते हैं,
हम अपने गुरुर में इतने व्यस्त हैं,
हम अपनी जरूरत दर्शाने में अभ्यस्त हैं,
हम ना जाने किस गुरुर में इतने ब्याकूल हैं,
क्या जाने हम अपने बर्चस्व को बचाने में मसगूल है,
हमें किसी दूसरे की स्वीकार्यता स्वीकार नहीं,
अपने को पहचानने में,
इंसानियत खो गई है कहीं !!