मनस धरातल सरक गया है।
अतल वितल को सुतल बनाते
मनस धरातल सरक गया है ।
झूल रहा मन दसों दिशायें
बिना सतह के भटक गया है।
इस विचलन व स्पन्दन से
मन में कितना कोलाहल है ।
जगत ज्वाल में ऐसा झुलसा
जैसे जग ये दावानल है ।
पता नहीं बच पायेगा भी
याकि अब ये मिट जायेगा ।
चेतन का ‘चि’ उड़ जायेगा
बस तन पिंजर रह जायेगा ।
कितनी अभिलाषायें मन की
सब सज-धज तैयार खड़ीं थी।
मन ने इनको अभी वरा था
आज झुलस गईं क्लान्त पड़ीं ।
या तो प्रभु उबारो मुझको
या फिर अपने पास बुला लो ।
असह्य वेदना थका रही है ।
मुझको कोई ठौर लगा दो ।