मनमुताबिक
यहां सब वक्ता
श्रोता न कोई,
कहते है सब
सुनता न कोई।
मजमूने खत भांप लेते लिफाफा देखकर
पढे कौन ?
समझता हर कोई।
पढना सुनना समझना
न चाहे कोई,
वाह, बहुत खूब, क्या बात,
करे हर कोई।
कुछ कद्रदान है जिनके दम पर
कवि कलम दोनो जिंदा,
वरना हर कविता रोई।
उस्ताद खानसामा
यहां हर कोई
चखने वाला न मिला
हर डिस रोई,
प्रजेंटेशन देख के समझ लेते है लोग
बिना चखे ही बोलते
लज्जत नहीं कोई।
इश्क-मोहब्बत के तराने
चाहे हर कोई
उल्फत दीवानगी मदहोशी
चाहे हर कोई,
सांचे में ढला बदन चेहरे पे नूर लहराती जुल्फे
कटि उरोज होते तो बात –
समझे हर कोई।
उगलते सब
निगलता न कोई
जुस्तजू लजीज़ जायका गर मिले,
मनमुताबिक
न मिल सका कोई।
स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्वनी कुमार जायसवाल कानपुर 9044134297
प्रतियोगिता प्रतिभागी