मदार चौक
बहुत दिनों से जयबुनिया मदार चौक जाने की सोच रही थी. नेपाल का यह मनोरम स्थान जाने कब से उसे आमंत्रित कर रहा था. साल- दर – साल गुजरते गए. अबकी तो वह जाने की ठान ली थी. कब तक वह अपनी सामाजिक दुर्दशा पर आंसू बहाती. शादी के कितने साल निकल गए. आखिर अपनी कोख कब तक सूनी रखती, बेचारी जयबुनिया.
“ अरे कहाँ चल दी जयबुना रानी, बड़ी बनी-ठनी हो. रांड कहीं की. सुबह- सुबह जात्रा बिगाड़ दी सौत ने” खाला ने उसे कहीं जाते हुए देख, टोका था.
जयबुनिया ने खाला की जली-कटी को अनसुनी कर दी थी. उसका लक्ष्य निर्धारित हो चुका था. अब कोई रोक नहीं सकता. बहुत सुन चुकी. अब वह बांझ नहीं कहलाएगी. मदार चौक की यात्रा से उसकी यह मनोकामना पूर्ण होगी. विश्वास जग चुका था.
खाला की बातें सोचते – सोचते कब जयबुनिया मदार चौक पहुँच गई पता ही न चला. जयबुनिया अब अपने मंजिल के करीब थी. बहुत ही करीब. रात में सभी याचक इकठ्ठा हो चुके थे. इनमें अधिकांश संतान की चाह वाली महिलाएं थीं. जयबुनिया उनमें से एक थी. शायद सबसे अधिक पीड़ित, प्रताड़ित और अभिशप्त. ढ़ोल-नगाड़े बजने लगे. धीरे-धीरे सभी एक भयावह संगीत लहरी में गोते लगाने लगे. देर तक चले इस कार्यक्रम के बाद प्रसाद वितरित हुआ. जयबुनिया ने भी प्रसाद ग्रहण किया. उसकी आँखों में उस समय श्रद्धा के बादल स्पष्ट दिखाई दे रहे थे. बरसना शेष था.
सात महीने हो गए मदार चौक से आए. खाला अब विशेष ख्याल रख रहीं थीं. पर जयबुनिया पीली पड़ गयी थी. संयोग ही था, इसी बीच उसकी पुरानी सखी कुरैशा मिलने आ गयी. जयबुनिया के पेट के आकार को देखकर वह अपनी ख़ुशी छिपा न सकी.
“अरे, जयबुना तुम्हारे तो पाँव भारी हैं रे. देखा मदार चौक की महिमा. मैं तो पहले ही तुमसे कह रही थी- जा एक बार मदार चौक हो आ. मजार पर मथ्था टेक आ. तुम अब मानी. चल देर से ही सही अक्ल तो आई.
“ हाँ, कुरैशा. पर अब किसी को यह राय मत देना” जयबुनिया ने लगभग कराहते हुए कहा था.
“ क्यों, क्या हुआ ?” कुरैशा ने विस्मय से पूछा.
“ कुछ नहीं, सब ठीक है. बांझ तो नहीं कहलाऊँगी. पीर की दुवाएँ मेरी कोख में पल रही है. साला पक्का हरामी था.”
अब कुरैशा के सोचने की बारी थी.