मदर्स डे स्पेशल
खत़ माँ के नाम, मन की कारा में छिप के बैठी बातें
आज लिख रही खत़ में वह,सारी ही जज्बातें ।
विषय अनकही बातें
दिनांक 8/05/2022
मेरी मम्मी,.।
लिख रही हूँ एक पाती ,
आज फिर तेरे नाम की।
पहुँचेगी नहीं,जानती हूँ,
है ये फिर किस काम की ?
बचपन बीता नेह की छाया,
पुष्प खिले यौवन के जब।
तुमको देश पराया भाया।
पिता ने भी कर दिया विदा तब।
आज उमगती हैं कुछ पीड़ायें
काश होती तुम तो बाँट लेती।
नये जीवन की दुख गाथायें,
सुना ,पा सँबल पा लेती ।
कब करना चाहा था विवाह ?
कब हवन बेदी पे भाँवर चाही?
बस चाहा था तो इतना ही
अपना आसमान छूना था।
इक छोटा स्वप्न शिशु जागा था
ओस के तारे सा सलोना सा था।
और पढ़ना था ,वकील बनना था
या फिर प्रोफेसर बन आगे चलना था।
छूटे सपने रूठे अपने ,टूटे ख्बाव सारे
विपरीतता के तटबंधों से आकर मिले तारे।
पूछती हूँ एक सवाल ,हो जहाँ भी देना जबाव।
फर्ज,दायित्व निभा कर भी मिली अवहेलना क्यों?
कर्म करने में खपा दिया फिर रूठी मेरी हँसी क्यों?
क्या बातें हीं थी.वो सारी ,कर्म को मिलती पहिचान
चर्म भी पीछे छूट जाता ,मिला क्यों फिर अपमान?
काश! होती तू पास मेरे,गले लग रो तो लेती
जीवन में मिले जो दंश,कह तुझसे हलका हो लेती।
सुनाऊँ किसे ये पीड़ा, मन की अनकही बतियाँ
मन के तहखानों में छिपी हैं अश्रुपूरित अँखियाँ।
तुम्हारी वही ‘चिरैया’
मनोरमा जैन ‘पाखी’
मेहगाँव