मदनोत्सव
बीते
कई दिनों से
विभिन्न राजनैतिक
चर्चाओं में पूरा
शहर व देश मसगूल था ,
बसन्त की आहट का
किसी को कदाचित
पता ही नहीं चला था I
अचानक
आज भोर में
कोयल की कूक
मेरे शयनकक्ष की
खिडकियों से
मनीप्लांट की लड़ियों को
चीरते हुए कानो में पड़ी,
तब लगा मधुमास की
लो आ गयी घड़ी I
विगत कई दिनों की
व्यस्तताओं के उपरांत
आज मैंने अपनी
गृहवाटिका की ओर
चाय रुख किया,
अपने प्यारे पौधों को
गौर से निहारना
शुरू किया I
जहाँ प्रकृति के
शाश्वत परिवर्तन के
अविरल दौर दिख रहे थे ,
जीर्ण पीले पत्ते
सुकोमल हरे पत्तों को
क्रमशः एक लय में
अपना स्थान स्वेच्छा से
देते दिख रहे थे I
सुकुमार नवजात पत्तियां ,
प्रस्फुटित नई शाखाये व डलियाँ ,
उस पर मंडराती विलुप्त
होती तितलियाँ ,
पीले सरसों के फूलों से
पटे सुदूर सिवानों पर
इतराती टिड्डियाँ
मन को आह्लादित
कर रहे थे,
और बसंतोत्सव की
आहट को सम्पूर्णता से
दर्शा रहे थे I
उषाकाल का यह
पूरा परिदृश्य
अनजाने में ही
प्रकृति की समुचित
स्थानापन्नता के सार्वभौमिक
सिद्धांत का सन्देश
देता प्रतीत हो रहा था,
जीवन की विराटता के साथ
नश्वरता की व्यथा
पूरी व्यापकता से कह रहा था I
निर्विवाद ,
अतीत के संपन्न
विचारों के नीव पर
धूमिल तथ्यहीन और
औचित्यविहीन
हो चुके विचारों को त्याग कर
नूतन समकालीन उपयुक्त
विचारों एवं भावों के
आलिंगन की बात कह रहा था ,
साथ ही प्रौढ़ता से
वृद्धता की ओर
थक कर चल रहे कदमो से
इस अविरल सत्ता को
नयी ऊर्जावान पीढी को
स्वेच्छा से
पूरे विस्वास के साथ
सौपने की बात
दोहरा रहा था I
पूरी प्रकृति
एक ओर जहाँ अपनी
अवसादमुक्त हरित चादर में
खुशियों की सौगात लिए
मदनोत्सव हेतु होलिकादहन को
इच्छुक लग रही थी ,
वही दूसरी ओर
नए परिवेश के अनुरूप
नयी सोचों व नए मापदण्डो को
अपनाने का मूक सन्देश
दे रही थी I
निर्मेष