मत बांधो सरहदे मेरी
मत बाँधों सरहदें मेरी, मुझे पसंद है ऊँची उड़ान
अपना तो कोई धर्म नही ,कैसा फिर कोई भगवाँ
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मस्त जिंदगी हो खुशियों भरी और हसीं ख्याल
गुमसुम जिंदगी को क्यों जीता ,फिर तू है इंसान
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इंसान होकर मंदिर मस्जिद में ख़ुदा ढूढ़ने चले हो
चाहने वालों के तो दिल में ही होता उसका स्थान
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मुझे बँधाना भी तौहीन तुम्हारे खुदा की है यारों
मुझे तो उड़ने को दिया उसने यह सारा आसमान
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तुझे देखना है तो बन्द आँखें कर तुझे मिल जाएगा
कह गए मन्दिर मस्जिद में गीता वेद और कुरआन
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अशोक अबोध बालक सा तू हाथ जोड़ करे बन्दगी
जिससे तुझे मोहब्बत वो ख़ुदा नहीं तुझसे अन्जान
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से