मत उतरो…
हो गयी जर्जर तुम्हारी नाँव ,
मत उतरो नदी में..
जिंदगी भर तटों के उस पार
से इस पार तक ।
आती जाती रही लहरों में
उफनती धार तक ।।
तुम्हारे भी थक गए हैं पाँव,
मत उतरो नदी में..
पर्वतों से चल पड़े वे आदमी
थे भले चंगे ।
ठिठुरते तन पर लदा था बोझ
उनके पांव नंगे ।।
सांझ ओझल हो गए है गाँव,
मत उतरो नदी में..
ढूंढते सौंदर्य उपवन में अरे
कब से खड़े हो ।
चाँद से ये बात करते चीड़ ,क्या
इनसे बड़े हो ।।
आगे भी तो ठौर है न ठाँव,
मत उतरो नदी में..
एक समय था आँधियों से होड़
थी तुमने लगाई ।
अपने भुजबल से सफलता खूब
अपने हाथ पाई ।।
जीत डाले हैं अनेकों दाँव ,
मत उतरो नदी में..
कर्म की बहती नदी यह जिंदगी
से भी बड़ी है ।
नाव है काया मनुज की सामने
जर्जर पड़ी है ।।
जा रही ढलती सुखों की छाँव
मत उतरो नदी में..