मत्तगयन्द सवैया
मत्तगयंद सवैया छंद- भगण×7+गुरु गुरु
ग्वाल सखा सब संग चले,सिगरे ब्रज घूमि मनावन होली।
छेड़ि सबै मुसकाय कहैं ,कुछ ढंग विचित्र सुनावत बोली।
गोपिन रंग लगाय रहे ,पकड़े सब हाथ अबीरन झोली।
फागुन मास लगा जबसे, मुरलीधर आइ भिगावत चोली।।
पूनम चाँद खिले जब अंबर लागत है अति शुभ्र सुहाना।
सोहत सुंदर आनन सा नभ चाह रहा बस सोम लुटाना।
षोडश पूर्ण कला शशि देखत चातक पावत प्रेम खजाना।
चंचल रश्मि विलोकि धरा पर,अंबुधि का मन होत दिवाना।।
भाव नहीं अनुभाव नहीं रस,छंदप्रभाव नहीं कुछ जानूँ।
लेखन में कुछ काम नहीं कवि,पुंगव जो खुद को अनुमानूँ।
नाम नहीं उपनाम नहीं अरु, भंग धतूर खड़ा कब छानूँ।
मंच नहीं सरपंच नहीं प्रभु,रार कहो किस कारण ठानूँ।।
डाॅ. बिपिन पाण्डेय