निश्छल छंद
आई पहने धूप ओढ़नी,
ऋतु बैसाख!
सूर्य कोप छाया वन कानन,
बनते राख!!
बिना कार्य बाहर मत निकलो,
लो विश्राम !
पानी कैरी खूब पना लो,
खाओ आम!!
ऋतु बैसाख झुलसती धरती,
निर्धन त्रस्त!
नहीं गरीब को छत और रोटी,
अभाव ग्रस्त!!
दाता तूने जन्म है दिया,
है आभास!
सिर पर छांव छत्रछाया की,
तुझसे आस!!
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
मेरी स्वरचित व मौलिक रचना
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