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5 May 2024 · 1 min read

“मतदाता”

कुटिल चाल के वशीभूत वो भावों में बह जाता है।
चोट गहरी कई बार वो इस कदर खा जाता है,

भावों में बह कई बार जब भूल बड़ी हो जाती है,
फिर राजनेता के सिर मदिरा बन चढ़ जाती है।

संविधान ने बख्शी है उसको ऐसी शक्ति अपार,
बदल डाले वो निज़ाम को जब चाहे वो कर लाचार।

प्रतिनिधि ने थोंपी है जब भी जबरन अपनी बात,
वक्त वक्त पर याद दिलाई है मतदाता ने औकात।

हर बार उसने अभिमानी को दूर तलक खदेड़ा है,
जब भी किसी ने मतदाता की औकात को छेड़ा है।

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