मणिकर्णिका
धू-धू करता धधक रहा था
देह किसी का,नेह किसी का।
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जलने वाले जल रहे थे,
जलाने वाले तड़प रहे थे।
लपटे सीना फाड़ रही थी,
चड़-चड़ कर चिघांड़ रही थी।
धिरे-धिरे बिछड़ रहा था,
हाँथ किसी का, साथ किसी का।
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कसक थी कसमे- वादों की,
भूले बिसरे- यादों की।
मन-चित सब अशांत सा लागे,
भूत -भभिष्य था वर्तमान के आगे।
उड़ता हुआ दिख रहा था,
राख किसी का,खाक किसी का।
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टकटकी लगाए आँखें देखती,
कभी-कभी बरसाते करती।
पुत्र-पति की भींगी आँखें,
जीवन की मूल्य थी समझाती।
धिरे-धिरे भस्म हो रहा था,
लाश किसी का,आश किसी का।
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पुत्र पिता का आलिंगन कर,
शव जलाने से रोकता।
लौटा दो मेरे माँ को ,
हाथ जोड़ ईश्वर से कहता।
धिरे-धिरे छूट रहा था,
अंग किसी का,संग किसी का।
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काया पर अपने दंभ था जिनको,
सहसा झटका लगा था उनको।
जन्म-मरण में अंतर है कितना,
मणिकर्णिका ने समझाया था उनको।
धीरे-धीरे टूट रहा था,
हम किसी का, भ्रम किसी का।
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मणिकर्णिका :- वराणसी में गंगा किनारे शमशान घाट ।
कुन्दन सिंह बिहारी(माध्यमिक शिक्षक)
उत्क्रमित माध्यमिक वि०अकाशी।
सासाराम रोहतास बिहार