मटका
मिट्टी खोदा चूर चूर कर,
पानी से फिर माड़ा।
गूंथ गूंथ कर किया मुलायम,
ककड़ पत्थर काढ़ा ।
उस मिट्टी को चाक पर रखकर,
डंडा मार घुमाया।
कुंभकार निज हाथ सहारे,
गोल आकार बनाया।
धूप में रखा कई दिनों तक,
अग्नी खूब तपाकर ।
इतनी दुर्गति करवाकर के,
घड़ा बना तब जाकर ।
अंदर से पूरा खोखला है,
एक धक्के में चटका ।
फिरभी जिद देखो है कैसी,
अब भी मटका मटका ।
सतीश सृजन, लखनऊ.