मज़दूर हूँ ……
मज़दूर हूँ …….
और मज़बूर भी
वो दिहाडी और
वो कमाई …….
मेरे खाने तक सीमित
और …….
कुछ बचाने तक मात्र
ताकि कर सकूँ
दवा पानी बच्चों की
गर … सर्द ज़ुकाम
हो जाये कभी
सच कहूँ …. तो
जि़दगी-ए-जिंदगी को मैंने
आत्मसंतोष को मैंने
जीवन का लक्ष्य बनाया
चिथडे-फटे कपडो में
सूट पहनने का सुख पाया
इक जून की रोटी जब
होती नहीं नसीब
किसी रोज़ …
करके उधार सारा …….
करता हूँ
बच्चों का गुज़ारा
न दुनिया …….
न रिश्तेदार कोई
न ही दोस्तर वेगरह
इसीलिए कहता हूँ
मज़दूर हूँ…….
और मज़बूर भी ।।