मजहब के रंग हजार देखे हैं
सुना है मजहब के रंग भी हजार होते है
कभी कभी हम भी इन्ही से दो चार होते है …….
कान्हा का पीताम्बर कोई जावेद सीते है
राधा की माला कोई बानो पिरोती है
दरगाह की फूलो की चादर
कोई किसना माली बनाता है
रज रज के धागों से कोई प्यार पिरोता है
कहीं कोई हिन्दू मौला की टेर लगाता है
कोई रसखान कान्हा मे डूबा जाता है
फिर क्यूं ?…
कोई कान्हा और कोई पैगम्बर मे जिए जाता है ?
अरे !मजहबो को जुदा करने वालो
क्या कभी खून का रंग जुदा होते देखा है
किसी लावारिस का धर्म पता करते देखा है ?
क्या कभी सूरज की किरणों को
भिन्न पडते देखा है ?
मजहब जुदा करके
बारिश होते देखा है ?
आज हिन्दू पे कल मुस्लिम पे बरसते देखा है?
फिर क्यूं इंसॉ के खून को सफेद होते देखा है ?
अक्सर राम और रहीम को
साथ चलते देखा है ..
फिर क्यूं मजहब का मजहब से बैर होते देखा है ….
सचमुच मजहब के खातिर दो चार होते देखा है …
मजहब के रंग को हजार होते देखा है …