‘मजबूर’ “मजदूर”
मजदूरों का क्या हाल हुआ,
हाल नहीं,बेहाल हुआ।
ये कैसा तंत्र है,
न जाने क्या मंत्र है।
रोज़ बिछ रही हैं लाशें,
घर जाने की फिर भी आशें।
बुरे हाल में सबसे मजदूर,
घर जाने को हैं मजबूर।
राहत नहीं,आहत है,
शायद भयावह आहट है।
नसीब नहीं दर्शन अंतिम का,
हाल किसे कहे वो मन का।
पड़ गए छाले, पैरों में चलकर,
सुस्ता लेते हैं,तनिक ठहरकर।
बेबस माँ, ममता लाचार,
छोड़ बच्चे को हुई फ़रार।
जन्म दिया, सड़क पर उसको,
कौन संभालेगा अब इसको।
गिनती मौतों की कम ना है,
मरने का किसको ग़म ना है।
घर उजड़ा,उजड़ गया संसार,
कहाँ जाए,बेबस लाचार।
अग्नि दिल में दहक रही है,
ना जाने क्यों महक रही है।
बिलख रहे हैं, होकर दूर,
आँखों में घर जाने का नूर।
चलता जिनसे पूरा देश,
बूरा हुआ उनका ही भेस।
लॉकडाउन ये फोर है,
घर जाने की होड़ है।
भूख से वे तड़प रहे हैं,
तिल – तिल को तरस रहे हैं।
बिलख देख, है फटती छाती,
कर महसूस,दर्द है आती।
बूरा इतना अंजाम हुआ,
ये सब अब तो आम हुआ।
सोनी सिंह
बोकारो(झारखंड)