मजबूर बचपन
बचचे सचचे होते मन के
द्वेष भाव न मन में धरते
मिलजुल कर रहते हैं सारे
हँसी खुशी से मिलकर रहते।
खेल खिलौने भाते इनको
रंगीन ग़ुब्बारे लुभाते इनको
आँखों मे हसरत पाने की
न मिले तो रूलाते इनको।
बडी आस से ताक रहे हैं
सपने मन में झाँक रहे है
बेबस बचपन है गुमसुम
आँखों आँखो से भाँप रहे है ।
सपने सा लगता इनहें पाना
चाह करते निकला ज़माना
देख कर ही ये खुश हो लेते
भागय में कहाँ है हाथ लगाना।
क्यूँ बेबस इतना हुआ बचपन
जीता निश दिन मार के मन
आधा पेट ही खाने को मिलता
जी रहा आँखों में लिये अधूरापन।
सूक्षम लता महाजन