मजबूत हाथों से कच्चे घरौंदे बना रहे हैं।
मजबूत हाथों से कच्चे घरौंदे बना रहे हैं।
और और अपने घरों में अल्ट्राटेक सीमेंट लगा रहे हैं ।
मोटी रकम लेकर नकल कर रहे हैं ।
और स्वयं के बच्चों को ज्ञानी बता रहे हैं ।
उठा दे कोई आवाज तो सरकार को जिम्मेदार बता रहे हैं
और गोल- मोल की बातों से स्वयं का पल्ला झड़ा रहें हैं। अपने दायित्वों को कुछ इस तरह निभा रहे हैं ।
8 फीट की दीवार को भी कच्ची मिट्टी और गारे से बना रहे हैं।
यह यह 8 फीट की दीवार 8 फीट की ही रह जाएगी।
यह कभी आगे ना बढ़ पाएगी ।
कच्ची मिट्टी से बनी दीवार को आगे बढ़ाने की उम्मीद लगा रहे हैं ।
अपने ही हाथों से बबूल के शूल उगा रहे हैं।
यह शूल जिस दिन बढ़ जाएंगे हमारे ही कर्मों में छेदे जाएंगे। और तब हम पछताएंगे और मन में विचार लायेंगें।
कि व्यर्थ ही अपना प्रपंच चलाएं।
और न जाने अपने मजबूत हाथों से कितने कच्चे घरोंदे बनाए। ( यह कविता मैंने कुछ विद्यालयों में होने वाली नकल के विरोध में लिखी थी)