मजदूर
जो हैं बेबस , लाचार , विकल
दिखता नहीं जिनके दुःखों का हल ।
मिलती नहीं जिन्हें भरपेट रोटी
खुशियाँ जिनकी तिनकों-सी छोटी ।
जो लहू भरे पगों से गिरते-पड़ते जा रहे हैं
जीवन जीना है तो आगे बढ़ते जा रहे हैं ;
उन लोगों को हम मजदूर कहते हैं
जो हर दिन हारे , मजबूर रहते हैं ।
कहने में तो वे आदरणीय ,
मेहनती , सृजन के सिपाही हैं
पर , यह बात केवल शब्दों में आई है ।
यदि होता उनका कोई भी मान ,
हर दिन न जाती सैकड़ों की जान ।
जिंदगी उनकी इतनी सस्ती न होती
मँझधार में डूबी उनकी कश्ती न होती ;
बच्चे उनके न घर को तरसते
आंधी औ’ शोले न उन पर बरसते ,
हृदय उनका इतना ज़ख्मी न होता
उनका कुटुम्ब भी निश्चिंत सोता
उनका कुटुम्ब भी निश्चिंत सोता..।
(मोहिनी तिवारी)