मजदूर
शीर्षक – मजदूर
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चल पड़ा अपरचित राहों पर
कैसा ये नासूर हो गया l
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया l l
कुछ एक वर्ष पहले ही वो
गाँव छोड़ अपना आया था l
ऊँचे से ख्वावो को लेकर
सच करने अपने आया था ll
पड़ी आपदा, किस्मत रूठी
सपना चकनाचूर हो गया……
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया l
रोजी रोटी तो चली गयी
कैसे भूखो के पेट भरे
सरकारी वादे बड़े अनिश्चित
कब तक बोलो बेट करे
फिर चला साथ लेकर कुनबा
किस्मत से कुछ दूर हो गया….
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया…..
नंगे पैरो में उपजे छाले
रक्त महावर लगा रहे हैं l
संवेदनहीन राजतंत्र को
चलकर पग-पग जगा रहे हैं ll
देख न पाया अंधा सिस्टम
सड़क रंग सिंदूर हो गया…..
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया l…
भूखे प्यासे व्याकुल छौने
दुलहिन के पैर पड़े छाले l
हाय विधाता किस्मत रूठी
पड़े जान के अब तो लाले ll
ऊपर से ये ग्रीष्म दुपहरी
घर काले कोसों दूर हो गया….
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया l…….
क्या डरना उस कोरोना से
महामारी से भूख विशाल l
जीवन इतना सरल नहीं है
संघर्ष करे हाल बेहाल ll
हर पीड़ा से बढ़कर पीड़ा
प्रवासी अब मजदूर हो गया…
अपनों की व्याकुल आहों से
श्रमिक बड़ा मजबूर हो गया l……
राघव दुवे ‘रघु’