मजदूर हूॅं साहब
दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करता हूं।
मेरे बच्चे पढ़ जाए
इसीलिए दिन रात मेहनत करता हूं।
कभी ईंट की भट्ठीयों में जलता हूं
कभी सड़कों के किनारे सोता हूं
बस यही सपने लिए फिरता हूं
कि मेरी आने वाली पीढ़ी मेरे जैसा संघर्ष ना करें।
मैं फटा पुराना सब पहनता हूं साब
कभी नमक के साथ रोटी खाता हूं
कभी पानी पी कर सो जाता हूं
बस यही मन से पुकार करता हूं
कि मेरे बच्चे मेरे जैसे दर-दर की ठोकर ना खाएं।
मैं टूटे छत के घर में रहता हूं साब
कभी ठंड में ठिठुरता हूं
कभी गर्मी की लू में जलता हूं
बस यही हमेशा उम्मीद करता हूं
कि मेरे अपने मेरे जैसे कठिनाइयों से ना लड़े।
– दीपक कोहली