मजदूर हूँ साहेब
मजदूर हूँ साहेब
रोज बिकता हूँ मै
सरेआम खुले बाजार में,
मै मजदूर हूँ साहेब
सोता हूँ खुले आसमान में।
कंकड़ों की चादर
शिलाओं की बना तकिया,
बिस्तर कुछ खास नहीं
तो सड़क को अपना लिया।
घर में बीमार मां बापू
साड़ी में पैबंद लगाती बीबी,
शिक्षा से मरहूम बच्चों ने
मजदूर की नई पौध की खड़ी।
सरकारी सहायता से
कुछ पेट के आग बुझ रहे,
पर घर की अस्मिता
फटे चीथड़ों में झलक रहे।
कुआँ रोज खोदना पड़ता है
आज भी पीने को पानी ,
एक मजदूर के जीवन की
मुसलसल यही है कहानी।
सिवाय ठोकरों के कुछ नहीं
हमारी अबूझ रही है जिंदगी,
पेट की आग हो संतृप्त
तब रब याद आये तेरी बंदगी।
बेशक कुछ हाल तो बदला है
निर्मेष पर हालत वही है,
राजनीती से प्रेरित कदमताल
कमोवेश हम वहीं के वही है।
निर्मेष