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23 Jun 2021 · 1 min read

मजदूर हूँ मजबूर हूँ – कोरोना काल में लिखी गयी रचना

मजदूर हूँ मजबूर हूँ

मजदूर हूँ मजबूर हूँ इस देश की संतान हूँ
सरकार को समझना होगा मैं भी एक इंसान हूँ |

एक निवाला रोटी नहीं , ने ही पीने को पानी है
कोरोना की इस त्रासदी में , ये कैसी जिंदगानी है |

घर के बेटो को पराया कर दिया सरकार ने
परदेशी बेटों को बिठाया सिर माथे सरकार ने |

हमसे चलता है देश , ये सरकार को समझाइये
मानव अधिकार संस्थाएं होश में तो आइये |

क्यूं कर एक गरीब का बच्चा जन्मा सड़क पर
टुकड़ों – टुकड़ों में बाँट गया , एक मजदूर सड़क पर |

पीर दिखती नहीं किसी को, कोई तरस तो खाइए
मजदूर हूँ मजबूर हूँ , इंसानियत के वास्ते जागिये |

ये जिन्दगी का कैसा सफ़र , मौत से बदतर
नेता सुरक्षित महलों में , गरीब सब मर जाइए |

न सर पर छत न पेट में रोटी , जाएँ तो जाएँ कहाँ
गरीब की बद्दुआ न लग जाए , होश में तो आइये |

मजदूर हूँ मजबूर हूँ इस देश की संतान हूँ
सरकार को समझना होगा मैं भी एक इंसान हूँ |

एक निवाला रोटी नहीं , ने ही पीने को पानी है
कोरोना की इस त्रासदी में , ये कैसी जिंदगानी है ||

Language: Hindi
2 Likes · 8 Comments · 502 Views
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