*मजदूर* …… (मजदूर दिवस पर विशेष)
हर शख्स नजर आता है मजदूर ….
कोई गमों को ढ़ोता हुआ
कोई तनहाई और अकेलेपन को
कोई ढ़ो रहा है धन को
कोई अपने ही तन को
…………… क्या जीवन का बस यही दस्तूर
…………… हर शख्स नज़र आता है मजदूर
कोई बेसबब ज़िन्दगी ढ़ो रहा है
कुरीतियों के बोझ तले कोई रो रहा है
किसी पर तो है बोझ ऐसा
जो जग रहा है न सो रहा है
………….. बिलखती आत्मा का क्या कसूर
…………… हर शख्स नज़र आता है मजदूर
चमकते हुए चेहरे से छलकता था नूर
जिसकी जवानी में था जोशीला शुरुर
क्यों नज़र आता है मानव अब
किंकर्तव्यविमूढ़, विचारशून्य और मजबूर
…………… क्या मर गया मानव का गुरुर
…………… हर शख्स नज़र आता है मजदूर
हरवंश श्रीवास्तव