मजदूर की व्यथा (पीड़ा)
“मजदूर की व्यथा”
दो वक्त की रोटी को,
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
सुबह का निवाला खाकर,
जब धूप निकल आती है,
.
संध्या होने तक कष्ट सहा-भरपूर,
कष्ट और भी गहरा जाता है,
जब मिलती नहीं पगार,
जब भूखे ही सोना पड़ जाता है ।
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दो वक्त की रोटी को,
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
लाया था फट्टे पुराने कत्तर चुग बीणकर,
“बैंया पक्षी” को घोंसला बुनते देखकर,
तम्बू बनाया जिसको गूथकर,
कम्प-कपाती ठण्ड से बच पाऊंगा…
ऐसा सोचकर,
कमेटी वालों ने उसे भी तोड़ दिया,
गैर-कानूनी सोचकर,
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दो वक्त की रोटी को,
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
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अभिनय एक मजदूर का,
है अति-कठिनाईयों से भरा हुआ,
सेठ लोग भी ये हैं कहते,
हम भी निकले हैं इसी दौर से,
कभी तो हम भी मजदूर थे,
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वो पूर्वज थे आपके,
जो सेठ कहलवा गए,
वरन् मजदूरी कैसे होती,
मालूम नहीं अभी आपको,
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पूरे दिन साहब-साहब मजदूर करे,
देते नहीं फूटी कौड़ी पास से,
रोते बिलखते होंगे बच्चे उनके भी,
फिर भी दिल विनम्र होता नहीं (सेठ का)
दो वक्त की रोटी को,
डॉ महेंद्र सिंह..
जिंदगी छोटी पड़ जाती है,
साभार प्रस्तुत,
डॉ महेंद्र सिंह,
महादेव क्लीनिक,
मानेसर व रेवाड़ी,
गांव व डाक-खालेटा,
हरियाणा123103.