” मजदूर की जुबानी “
गाते हैं मजदूर की कहानी ,
अपनी कल्पना और अपनी वाणी
आज सच्चे मजदूर की जुबानी ,
सुनते हैं हम एक उनकी कहानी ।
रात भले ही अंधेरे में गुजरे ,
दिन का एक भी पल ना जाए खाली ,
कभी पानी से भूख मिटाएं ,
कभी खाएं हम रोटी खाली ,
कभी पेट ना भरे सवाली ।
कई कविताएं , कई कहानियां , कई फिल्मों ने पात्र बनाया ,
कईयों ने अपने स्वार्थ के खातिर हमारी ही झोपड़ी जलाया ,
अपने हाथों की कलाकारी का एक भी नमूना ,
कहां अपने जिंदगी में अपने पाया ।
खुद को सोसल मीडिया पर प्रसिद्ध करने के लिए ,
कितनों ने हमारा ही किरदार अपनाया ,
स्मार्ट बनने की भाग दौड़ में ,
मेहनत – मजदूरी करना कहां कोई अब सीखाता है भाया ।
महिने लगें जिस अनाज को उगाने में ,
कड़ी धूप – गर्मी और बारिश के साथ अपना खून – पसीना बहाया ,
अपना पेट काट उसे हमने शहर तक पहुंचाया ,
पेट भरते ही खाने वालों ने ,
कचरे के डिब्बे में पहुंचाया ।
हमें कहां चाह इन ऊंचे दीवारों के मकानों की ,
हमें नहीं भाते ये चोंचले नए जमाने के ,
ये तो हैं सिर्फ नए चाल – ढाल दिखाने के ,
बिना मजदूर कहां है कहानी जमाने की ,
हर क्षेत्र में मजदूर पाओगे ,
चाहें वे आओ संस्कृति किसी भी ठिकाने की ।
हमारे हाथों के छाले ,
पांवों की बेहवाए ,
कभी महसूस नहीं होने देती ,
हमारी जिंदगी की दर्द भरे हालातों के धने छाए ,
बिना मजदूर कहां मिलता है वफादारी किसी भी घर आप जाए ।
युगों युगों से सिर्फ जलती है धूप में ये काया ,
कभी बाढ़ , कभी तारासदी , कई बार भूकंप भी आया ,
सिर्फ समाचार , अखबार की पहले पन्ने की शोभा बढ़ाया ,
हमारा तकदीर कहां कोई बदल पाया ।