*मजदूर और उसकी कहानी *
सुबह सुबह मजदूरी करने वो जाता है ।
जाने वो कितना पसीना बहाता है ।।
शाम ढले थक करके चूर होके आता है ।
तब जाके खाने को रोटी वो पाता है ।।
आंखें जो अंदर को धंसती ही जाती हैं।
आंखों के अंदर एक सपने की थाती है ।।
चप्पल है टूटी हुई, सिलवा के पहनी है ।
एडी में कितनी बेवइया फटी हैं।।
इनकी ही मेहनत से देश बढ़ रहा है ।
सड़के हो,फैक्ट्री हो,पुल हो,या बिल्डिंग ।।
इनके पसीने से सब कुछ बना है ।
फिर भी ये झुग्गी में जीवन बिताता है ।।
अंतिम पक्ति में ही आज भी खड़ा है ये ।
धन वाला इनके ही दम पर मचलता है ।।
दो जून की रोटी का ठिकाना नही है ।
फिर भी ये देश का भाग्य विधाता है ।।
यही है मजदूर यही उसकी कहानी है ।।
✍️ प्रियंक उपाध्याय