मजदूर।
बढ़ता जाए अपने पथ पर सतत कौन मजबूर
चला सैकड़ों मील गाँव के लिए विवश मजदूर।
सूखे – सूखे होंठ , पाँव के रीस रहे हैं छाले
आग उदर की जग-जग जाए,रूठे कौर,निवाले।
छोटे बच्चे पूछें, बापू कबतक होगा चलना
कबतक होगा कड़ी धूप में रफ्ता-रफ्ता जलना।
घर पर बैठी माँ की ममता हरदम राह निहारे
मंदिर,मस्जिद,गुरुद्वारे में आँचल विकल पसारे।
बहे स्वेद थे जिसके दर पर , वही राह में छोड़ा
दिए जिसे थे हमने सबकुछ,दे न सका वो थोड़ा।
जला – जलाके लहू कर्म से हमने नगर बनाये
विपदा की इस क्रूर घड़ी में पर वो काम न आये।
हो अँधियारा फिर भी अच्छा अपना है घर-द्वार
भली शहर की चकाचौंध से गाँवों की रफ्तार।
अनिल मिश्र प्रहरी।