मचल पड़ी
तिमिर को चीर ,रवि रश्मि निकल पड़ी।
मंद स्मित देखो ,कलरव को मचल पड़ी।
कोलाहल खग वृंद करते,पाखी नभ छू रहे।
खनखन खनकते कँगना,अँगना में गूँज रहे।
नखरीली पायल निगोड़ी,,पल्लू से उलझ पड़ी
मंद स्मित भी देखो ,कलरव को मचल पड़ी।
खेतिहर कंठ फूटे ,प्रभाती गूंजती है।
पशुओं के गल घँट गगन चूमती है।
गौरी ले गागर पनघट को निकल पड़ी।
मंदस्मित देखो,कलरव को मचल पड़ी।
क्षण क्षण बदल रही ऋतु भी ये मदमाती।
फागुन आते शीत लहर आकर तड़पाती।
पाखी मन ,नभ छूने,लो शब्दों से चल पड़ी
मंदस्मित देखो,कलरव को मचल पड़ी।
पाखी