मगर जाता है
क्यूँ बताता है नहीं दोस्त किधर जाता है
और जाता है तो किस यार के घर जाता है
पास आ मेरे सनम जा न कहीं आज की रात
या मुझे लेके चले साथ, जिधर जाता है
तू जो आ जाये है पल को ही तसव्वुर में सही
साँस रुक जाती है और वक़्त ठहर जाता है
हूक उट्ठे है वो शब वस्ल की याद आए है जब
एक ख़ंजर सा कलेजे में उतर जाता है
मैंने रोका तो बहुत तेरी तरफ़ जाने से
जी कहा भी के न जाऊँगा मगर जाता है
राज़ तो फ़ाश हो जाएगा ज़फ़ाई का तेरा
अब जनाज़े से मेरे उठके अगर जाता है
छोड़कर जाम मेरी मस्त नज़र का ग़ाफ़िल
आजकल दर से मेरे यूँ ही गुज़र जाता है
-‘ग़ाफ़िल’