मंदिर
मैं कवि हूँ
कल्पना ही मेरा जीवन
सोचता हूँ
मैं हूँ एक बूढ़ी नदी के तट पे निर्मित
एक अति प्राचीन मन्दिर
मन के सब दीपक बुझे
मूर्तियां काई में लिपटीं
और स्थिर घंटियां
ना कोई पूजक ना दर्शक
और ना ही शंखनाद
मैं कवि हूँ
कल्पना ही मेरा जीवन
सोचता हूँ
सो गया है मेरे मन की मूर्तियों में वह समाहित देवता
या फिर पुराना जान कर
परित्याग कर
इन मूर्तियो का
खो गया है
शहर के रंगीन
रंगों से रंगे उन मूर्तियों में
जिनमें पूजक कम
मगर दर्शक बहुत हैं
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सरफ़राज़ अहमद “आसी”