मंदिर का पत्थर
काश! मैं भी मंदिर का,
वह पत्थर होता…
जिसे हर रोज पानी और
दूध से नहलाया जाता है।
मुझे भी सभी छू पाते…
मुझे भी सभी देख पाते…
कैसे निर्जीव होने के बाद भी!
उसकी दिन-रात सेवा की जाती है…
तीन समय का भोग लगाया जाता है…
कभी महंगे-महंगे फलों का…
तो कभी स्वादिष्ट भोजन का…
और मैं एक सजीव प्राणी होने के बाद भी
उनकी नजर में आज भी इंसान नहीं हूं
ना मैं उनके साथ बैठ कर पानी पी सकता हूं
ना मैं है उनके साथ बैठ कर खाना खा सकता हूं
आखिर उस पत्थर को मैंने ही बनाया…
और आज मैं ही उनके लिए अछूत हो गया…
मेरे द्वारा बनाई मूर्तियां शुद्ध हैं…
मेरे द्वारा बनाए धार्मिक स्थल पवित्र हैं…
कभी-कभी समझ नहीं आता,
जब मैं अपवित्र हूं तो मेरे द्वारा बनाई गई
मूर्ति और मंदिर कैसे पवित्र हो जाएंगी ?
– दीपक कोहली