मंजिलों की तलाश में, रास्ते तक खो जाते हैं,
मंजिलों की तलाश में, रास्ते तक खो जाते हैं,
खुद की रूह से, अजनबी हम हो जाते हैं।
मन के आँगन में, सूनेपन की सिसकियाँ गूंजती हैं,
शाम-ओ-सहर फिर, दबे पाँव बस गुजर जाते हैं।
बारिशें छत की टिन को तो भिंगोती हैं,
पर एहसास सावन के, कागज़ी से हो जाते हैं।
फूलों की खुशबुएँ, फ़िज़ाओं में तो फैलती हैं,
पर जाने क्यों उन्हें देख, धूप मुरझा जाते हैं।
रेशमी धागे कभी, मन्नतों के जो बांधे हैं,
रेशे टूट कर, अब वो हाथों में आ जाते हैं।
बिछड़न की लकीरें, तो किस्मत ने खींची हैं,
हर्जाने में दर्द की अदायगी, बेजुबां दिल कर जाते हैं।
यादों के ताने-बाने में, साँसों को बुन कर रखा है,
वरना ज़िंदा धड़कनों की भीड़ में, अब हम कहाँ गिने जाते हैं।