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2 Apr 2021 · 1 min read

मंज़िल

मैं तो इस सफ़र में
एक पड़ाव सा हूँ ;
अनंत जीवन सफर पर
अपनी मंजिल का
पता ढ़ूढता हूँ!

बहुत कुदेरता हूँ अपने को
परत दर परत,
उभरते
सुनहरे ख्वाब, और
ख्वाबों के हिंडोले!
पर, हर पड़ाव
अनसुलझे प्रश्नों के
अनगिनत प्रश्नचिन्ह
छोड़ जाता है।

अब तो समय भी
उद्देश्यहीन लम्हों के ;
सफर का साथी बन गया है!
आवारा पलों के बेहिसाब
उत्पीड़न, और
बक्री- मार्गों का छलावा ;
मृगमरीचिका सा
सफर को,
और अंतहीन बना देता है।

अक्सर, इस पड़ाव पर
अब पीछे मुड़कर देखता हूँ!
अनंत खड़े प्रश्नचिन्हों के
इतर,
पदचिन्हों की प्रतिध्वनि में;
अपनी मंजिल का
पता पूछता हूँ!

© अनिल कुमार श्रीवास्तव

Language: Hindi
1 Comment · 289 Views
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