मंज़िल
अपनों से हारना क्या जीतना क्या हर हाल में सुकुँ हासिल नहीं होता।
खुद से लड़कर खुदी को जब तक बुलंद नहीं करते कामयाबी का स़िला नहीं मिलता।
ग़ैरों की साज़िशों में जब अपनों का हाथ होता है , तब दर्दे दिल ऱुह तक जाता है।
इस जीस्त़ की संगे राह में कांटे तो बहुत हैं पर मंज़िल की जुस्तजू में रफ्त़ा रफ्त़ा बढ़ते रहो।
मंज़िल दूर नहीं होगी वक़्त से जूझने का हौसला रखो।
ग़र किया समझौता वक़्त के हालातो से छोड़ अपनी जुस्तजू।
तब तय़ है ना हासिल होगी तुझे तेरी मंज़िल -ए – आरज़ू।