मंज़िल कोई और मुझे बताये ही क्यूँ
मंज़िल कोई और मुझे बताये ही क्यूँ
यहाँ बुलाकर वाइज़ को लाये ही क्यूँ
तुम ही वक़्त थे न हम ही थे रास्ता कोई
जाना था जब छोड़कर तो आये ही क्यूँ
की तर-बतर उम्मीद मगर बरसे वो नहीं
काले बादल नील- गगन पर छाये ही क्यूँ
है जगह दिल में बहुत और जिगर मज़बूत भी
वर्ना दर्द यहाँ आके चैन पाये ही क्यूँ
हटा सको गर राह के पत्थर हटा दो
ठोकर फिर कोई मुसाफिर खाये ही क्यूँ
हैं रोशनी में इस पर खड़े होने वाले
तक़दीर में ज़मीं के सिर्फ़ साये ही क्यूँ
हासिल नहीं कुछ भी हुआ अब सोचती है
‘सरु’ ने वो गीत पुराने गाये ही क्यूँ