मंज़िल का इंतजार
तमाम रातें नींद के इंतजार में गुज़ार दीं हमने ,
जबसे तुम बसी हो इन आंखों में ए मंजिल !
और किसी के लिए जगह ही कहां बची इनमें।
तमाम रातें नींद के इंतजार में गुज़ार दीं हमने ,
जबसे तुम बसी हो इन आंखों में ए मंजिल !
और किसी के लिए जगह ही कहां बची इनमें।