मंजर
आंखों से न हुआ रेख्ता
वो सर्द खौफनाक मंजर,
जब तुम्हारे वजूद की जगह
कफन मे आई लाश नजर।
सोंचा खुश-आमदीद बोलूंगा
खुश हो जाऊंगा मिला के नजर,
इजहारे खुशी मे गले लगाऊंगा
ये क्या ! सीने मे उतरा खंजर।
गये थे मुकम्मल मुस्कुराते हुए
जिए दोनो बेखौफ शामो-सहर
न खफा तुम, न थे हम नाराज
फिर ये क्यूं ? कैसे होगी बसर ?
कैसी नज़र लगी जालिम की
वो मिल जाये मुझको अगर,
लगा दूं उसको वो तड़पे चीखे
ऐसा बेरहम खतरनाक नस्तर।
बता ऐ मेरे खुदा करूं क्या ?
जिन्दगी नही, हुआ बेखबर,
बेकल बेबस बन्दगी करूं क्या
यार मेरा गया किसका मुंतजिर।
रेख्ता – ओझल
मुंतजिर – इंतजार
स्वरचित मौलिक सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्वनी कुमार जायसवाल कानपुर 9044134297
श्री श्याम सुंदर सुब्रमण्यम को समर्पित