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29 Sep 2021 · 31 min read

मँझधार ०१__२

1

1. मेरे गुरुवर

शिक्षा दायिनी मेरे गुरुवर
प्रभा प्रज्वलित हो तिमिर में
मैं छत्रछाया हूँ आपके अजिर के
पराभव अगोचर आपके चरण में

पथ – पथ प्रशस्त रहनुमा हमारे
कुसीद में साँवरिया आपके भव
घन – घन वारि इल्म विस्तीर्ण
अक़ीदा प्रज्ञा नय संस्कार अलङ्कृत

आराध्य करूँ मैं कलित नव्य हयात
पारावार मीन हूँ तड़पित खल
तेरी करुणा आनन्दित सरोवर
अवलम्ब श्रीहीन अंगानुभूति धरा

निश्छल पैग़ाम तहज़ीब बसेरा
शून्य शिथिल में मै तर्पित
दामिनी प्रारब्ध अकिञ्चन धार
दहलीज़ तेरी याचक नूतन

चक्षु बूँद स्मृति धूल मैं
नतशिर सदा उज्ज्वलित बिरद
गिरि दिव में मार्तण्ड स्पृहा
जय ध्वनि दीप्ति क्षितिज में

2. विजयपथ

रेल – रेल सी ज़िन्दगी में
क्या धोखा ? क्या दीवानी हो ?
पथ – पथ तिनका बिछाता मन में
हो रहा वसुन्धरा सङ्कुचित काया

बन बैठी मशक्कत मेरी दुनिया से
मैं हूँ गाण्डीव किन्तु अर्जुन नहीं
युधिष्ठिर दीपक का चिराग मैं
कुरुक्षेत्र शङ्खनाद का रथी नहीं

यह ललकार मेरी विजयपथ की
मैं लौट आया हूँ अपने जग
द्विज बनूँ या अपरिमित नहीं
रङ्गमञ्च सौन्दर्य होती उज्ज्वल

इस अट्टहास भरी परितोष नहीं
अलौकिक निर्मल सुदर्शन बनूँ
अपनी व्यथा तरुणाई में स्पन्दन
यह असीम नहीं अभेद्य हूँ

नाविक भार पङ्किल में प्रतिबिम्ब
झङ्कृत ज्योति में ठहराव कहाँ
यौवन बन चला लङ्घित धार
शरद् विकीर्ण चेतन में विभक्त

विस्मय विद्युत् की राही मैं
शृङ्खलित सङ्कुचित में समाहित
क्रन्दन के हाहाकार कुत्सित उद्वेलित
स्मृत स्वप्निल में धूमिल हृदय

आँसू अंगारे में कम्पित करुणा
उत्पीड़न कराह कलङ्कित तुषार
छाँह की तड़पन में प्यासा काक
हे पथिक पथप्रदर्शक करें अपना

3. पवित्र बन्धन

इबादत करूँ मैं अल्लाह की
रात की चान्दनी देखूँ तबसे
मुकम्मल दास्ताँ की धरोहर में
ख़्वाबों के सपनों मैं , सजाऊँ कैसे ?

प्रेम भाव के आलिङ्गन में समाऊँ
तन – मन ह्रदय में छा जाऊँ संसार
हज़रत मोहम्मद के पैग़ामों से
जन – जन भाईचारा का सन्देश जगाऊँ

विजय सन्देश पवित्र बन्धन है
ईदों के त्यौहारों का तोहफ़ा विस्मित
क़यामत दहलीज़ खुदा कुर्बान मैं
दस्तूर है मुबारकबाद का अपना

कण – कण से होता जगजीवन निर्माण
ख़ुदा है जो करता विश्वकल्याण
मानवीयता बना जन्नत दरवाजा
महफूज़ रहूँ सदा भवजाल से

शशि शहंशाह फ़रिश्ता अपना
मोहब्बत सरताज सरफरोशी सरसी
हो जाऊँ प्रभा तम तिमिर में
घन – घन घनश्याम बूँद – बूँद बने‌ हम

4. एक पैग़ाम ( ग़ज़ल )

मैं चल दिया इस दुनिया छोड़ के
पता नहीं मुझे , कहाँ जाऊँ मैं ?
कोई पूछा भी नहीं , मुझसे भी
ठिकाना तेरा कहाँ है , कबसे ?

मेरी कहानी ख़्वाबों की गस्ती
कितनी दिलकशी रङ्गीन पुरानी !
पलकों से लगी मेरी जुगनू प्यारी
मेरी तड़पन से लगी कम्पकम्पी दीवानी

आँसू मेरे अंगारे न पूछें कोई
ख़्याल भी मेरे मञ्ज़िल भी टूटी
शब्द – शब्द का मारा , ख़ता मेरी
कैसे बताऊँ मैं तुझे दर्द कहानी ?

भूल भी न पाऊँ मैं ज़िन्दगी तमन्ना के
मुसाफ़िर बञ्जारे बना ज़िन्दगी के
वक्त के मुलज़िम बन चला कबसे
स्वप्न भी मेरी बिखर गयी तबसे

ज़ख़्म भी बेवजह कराह रही
अब किस किसको मैं दस्तूर बताऊँ ?
दर्द से तड़पन मेरी कैसे सुलगती ?
इकरार भी अब कैसे छुपाऊँ रब से ?

मुझे एक पैग़ाम ला दो समन्दर से
एक घूँट भी जहर का पी लूँ मैं
श्मशान हो चला मेरी धड़कनें
हो जाऊँ अदृश्य मैं इस जग से

5. मैं हूँ निर्विकार

पथिक हूँ उस क्षितिज के
कर रहा जग हुँकार मेरी
लौट आया हूँ उस नव स्पन्दन से
कल – कल कलित कुसुम धरा

पथ – पथ करता मेरी स्पन्दन
होती प्रस्फुटित जलद सागर से
क्रन्दन के जयघोष शङ्खनाद मेरी
तम समर में आलोक अपना

पलकों में नीहार मन्दसानु नलिन
आगन्तुक के अन्वेषण प्रीति कली
मैं प्रवीण इन्दु प्राण ज्योत्स्ना
विस्तृत छवि तड़ित् मन में

सौन्दर्य ललित कामिनी उर में
वसन्त के सिन्धु बहार सुरभि
रिमझिम क्षणभङ्गुर में अपरिचित
अविकल आद्योपान्त विकल पन्थ है

प्रणय झङ्कार दृग में निस्पन्दन
बढ़ चला पथिक नभचल में
बूँद – बूँद प्रादुर् उस वितान में
मैं हूँ निर्विकार स्निग्ध नीरज

अकिञ्चन दत्तचित्त में निर्मल प्रवाह
कर्तव्यों में इन्द्रियातीत विलीन मैं
सव्यसाची उद्भिज दुर्धर्ष निर्गुण
दूर्बोध नहीं अविचल असीम चला

6. क्यों है तड़पन ?

क्या तृष्णा टूट पड़ी यहाँ ?
इस भिखमङ्गों के बाजारों में
कोई अट्टालिका खड़ा करता जाता
किसी की अँतड़ियाँ अंगारों में

पथ – पथ पर क्या कुर्बानी हैं ?
त्राहि – त्राहि कर रहा मानव
भ्रममूलक का जञ्जाल यहाँ
कोई रोता तो कोई चिल्लाता यहाँ

हाहाकार की नाद देखो गूञ्ज उठीं !
अशरत की पुजारी बन बैठे यहाँ
ज़ख़्म भरी धज्जियाँ फटेहाल
घूँट – घूँट में उगलती विष उत्पीड़न

रुधिर विरहित उत्कोच कफ़न
आधि – व्याधि के आततायी आतप
क्या शामत है उस कण्टक डङ्क में ?
घृणित – सी चिरायँध बिथा मर्दन है

अपाहिज़ अर्सा में क्यों है तड़पन ?
कटि कटी – सी क्लेश भरी कङ्गला
इस आरोहण में भी क्यों है कण्टक ?
लानत खलक में क्यों रन्ध्र भरी ?

7. साँझ हुई

साँझ होने को है , हुई
तम तिमिर में ढ़कती जाती हौले – हौले
वक्त भी लुढ़कते विलीन में
मचल – मचलकर होते तस्वीर

ऋजुरोहित सप्तरङ्गी अचिर में छँटी
प्रस्फुटित तीर व्योम में होते शून्य
अपावर्तन ओक में खग प्रस्मृत
क्रान्ति धार पड़ जाती शिथिल

शशाङ्क ज्योत्स्ना अपरिचित कामिनी
त्वरित ओझल वल्लभ ऊर्मि किञ्चित
मृगनयनी रणमत्त अधीर अगोचर
निवृत्ति निवृति बटोरती सरसी‌ में

खद्योत द्युति उन्मत्त दीवानी
झीङ्गुर झीं यामिनी राग में विस्मृत
श्यामली उर में नूतन लोचन
मृदु – मृदु कुतूहल किन्तु कौन्धती बीजुरी

निर्झरणी तरणी मनः पूत कैवल्य में
निर्झर – सी भुवन नीहार चित्त को
अलि – सी अचित अचित में तनी
मैं हूँ दिवा दीवा के भार विस्मित

8. अकेला

मैं अकेला रह गया हूँ बस
हताश भरी ज़िन्दगी व्यर्थ मेरे
पूछता नहीं कोई इस खल में
मोहताज भरी मैं अवलम्ब स्नेही के
फूट – फूट तीर रहा रुदन मेरी काया
स्वप्न धूमिल मेरी असमञ्जस में

बावला हूँ विकल तन के तन्हा मैं
निन्दा तौहीन मेरे शृङ्गार भरी
पथ – पथ समर्पण होती व्यथा मेरी
फिर भी अपरिचित – सी पन्थी मैं
गुलशनें दुनिया मुझे ठुकराते जाते
मैं अश्रु भरी तिमिर में परिचित

इस शिथिल निभृत चेतन शून्य में
प्रतिध्वनि आह मेरी विस्मृत – सी
तृप्त अग्नि में करुण कहानी से
रस बूँद प्लवित होती अकिञ्चन
घन छायी मेरे हृदय तम में
झञ्झा कहर उठती मेरे तन में

घनीभूत दुर्दिन आँसू अन्दरूनी में
बन चला चिन्मय ज्योति अँजोर
गोधूलि रीझ से भी मैं कलुषित
मैं रहा बस मँझधार कलङ्कित
विलम्बित नीरद उग्र – सी हिलकोरे
फिर भी मैं हूँ पुलकित – सी उमङ्ग

9. विकल पथिक हूँ मैं

मैं चला शून्य के स्पन्दन में
हिम कलित स्वर्ण आभा स्वर में
न्योछावर हो चला इस जग से
प्रतिबिम्बित हूँ प्रणय के बन्धन से
क्षितिज आद्योपान्त विस्मृत – सी
उऋण हूँ पतझड़ वसन्त के अशून्य

उषा कुत्सित क्रन्दन गगन के
यौवन प्रभा है सुरभीत प्राण में
प्रज्वलित – सी राग – विराग के स्वप्न में
उपाहास्य उपास्य के त्याज्य तपन के
इस महासमर ज़िन्दगी के भार लिए
कहाँ चलूँ मैं , इस भुजङ्ग तस्वीर में ?

पथ में विचलित चञ्चलचित्त – सी
शरण्य हो चला चित्त साध्य व्याल के
अविस्मृत – सी हर्षविह्वल स्वप्निल में
उन्मत्त उद्विग्न – सी इत्मीनान नहीं जो
अनुराग व्यथित पड़ा अभिभूत में
आह्लादित अज्ञ में रञ्ज यथार्थ भरी

कोहरिल गुञ्जित चक्रव्यूह गात से
तिमिर – सी तरुणाई डारि तीरे
ध्रुव – सी दरगुजर दमन दलन के
दुकूल भी होतव्यता नहीं जिसे
निरन्तर निर्जन मर्द्दित अतुन्द में
निस्तब्ध – सा विकल पथिक हूँ मैं

10. शृङ्गार अलङ्कृत

प्राण तरुवर को अलङ्गित
अहर्निश स्पृहा मेरी लोकशून्य में
क्या व्युत्सगँ , क्यों भृश ब्योहार ?
इस तरस आहु कराह रहा

अपराग हुँकार क्यों जग को ?
तन – मन व्यथा लिप्त वारिधि
मेरा जीवन तिमिर अनल्प – सी
होती मेरी क्यों व्याल हलाहल ?

प्राण पखेरू विप्लव प्रतीर
उर्वी छवि उदक शोणित में
घनवल्लभी तरङ्गिणी अरिन्द मम
गलिताङ्ग अविकल कुण्ठित मर्म

मेरी सौन्दर्य की असौम्य प्रहार
रङ्गमञ्च भूधर मुमूर्षु – सी उत्स्वेदन
जयन्त प्रच्छन्न त्रिविष्टप तपोवन में
अचुत्य नहीं निस्तेज कृश कलङ्क

ज़ख़्म भरी मेरी तुनक तृषित
दैहिक दुर्विनय प्रसूति भक्षित
शृङ्गार अलङ्कृत नीरस प्रतीत
मरघट में तुहिन पार्थक्य आँसू

तरणितनूजा अधरपल्लव गगनाङ्गन
मेघाच्छन्न घड़ी – घड़ी आच्छादित
अरण्यरोधन निस्बत बिछोह साध्वस
मेघकुन्तल मरीचिमाली चक्षुश्रवा

11. विजय गूञ्ज

वीर भूमि की है तीर्थ धरोहर
विजय गूञ्ज हमारी कारगिल की
पथ – पथ करता पन्थी मेरी पुकार
शौर्य मेरी धड़कन की गङ्गा बहार

यौवन बढ़ चला सिन्धु में ज्वार
राष्ट्र एकता अखण्डता का करें हुँकार
आर्यावर्त स्वच्छन्द के मस्तष्क धरा मैं
इन्कलाब के रङ्गभूमि में मैं पला

तड़पन मेरी माँ की एक पैग़ाम
चिङ्गारी मेरी अंकुरित बचपन आँगन के
उठा लूँ मैं शमशीर , धार वतन के
कर रहें कैलाश महाकाल का हुँकार

ललकार नहीं यह ख़ून तड़पन की धार
बनें हम राष्ट्रीय शान्ति मानवीय सार
ध्वज कफन के सलामी करती मेरी धड़कनें
हौंसलों बुलन्दी के तमन्नाओं में मैं विलीन

कफ़न हो जाऊँ मैं शहादत ध्वज में
मांग के थाल में मेरी कलित चिङ्गार
साँसों – साँसों में धड़क रहा व्यथा मेरी
पला माँ के वात्सल्य तड़पन करुणा मैं

जञ्जीर गुलामी के चन्द्रहास बनूँ मैं
मातृभूमि कुर्बानी के चनकते मेरी कलियाँ
मोल नहीं अनमोल है हमारी आजादी
इन्कलाब बोलियाँ की गूञ्जती शङ्खनाद

बचपन के आँगन में चिङ्गारी प्रज्वलित
मोहब्बत सरताज के आँसू में विलीन
चाहत मेरी आँखों में बलिदानी दस्तूर
पनघट पानी गगरिया के दीवानें हम

वीर जवानों के कफन शोहरत में
अपने खून से मातृभूमि के दृग धोएँ
रूकना झुकना मुझे आता नहीं
प्राण माँ के चरणों में अर्पित आगे बढ़े

मैं समर्पित वन्देमातरम् की ललकार
” राम नाम सत्य है ” नहीं कहना मुझे
आन – बान – शान प्रतिष्ठित मज़हब
पारावार नग नभ हिन्दुस्तान के संस्कार

सत्य चक्र गतिशील विजयी अग्रसर
राम – कृष्ण – महावीर – बुद्ध – अशोक की धरा
अविद्या दुःख से निर्वाण चौबीस तीलियाँ सार
यें हैं राष्ट्र , धर्म व अशोक चक्र के पैग़ाम

12. शून्य हूँ

दर्द दिलों में दृग अंगारों के
बिखरी मैं दास्ताँ के पन्नों से
लौट आ तन्हा पतझड़ व्योम के
पिक वसन्त प्रतीर के दृश्य अतुल

स्वप्निल धार असीम तुहिन में
बढ़ चला क्षितिज किरणों में , मैं समीर
मत रोक मुझे प्रस्तर पन्थ तड़ित्
मैं दीवाने मीत स्वप्न तमन्नाओं के

तरणि तपन शृङ्गार रग – रग में
द्विज प्रतिबिम्बि मधुकर प्याले
आभा कस्तूरी मत्स्य – सी सौन्दर्य
सिन्धु – सी वनिता यामिनी हंस

विहग ध्वज लहरी सरित् किश्त
रङ्गमञ्च रसिक नहीं पन्थ रथी हूँ
विकीर्ण स्यायी लीन स्निग्ध में कुत्सित
कुण्ठित भव विभूत नहीं स्वप्निल

बीन स्वर झङ्कृत स्पन्दन में
रागिनी चक्षु हूँ मैं प्रलय प्रचण्ड के
प्रथम जाग्रति थी करुणा कलित में
विकल चल शून्य हूँ बिन्दु कल के

13. आँगन

बलाहक ऊर्मि का दहाड़ देखो
रिमझिम – रिमझिम मर्कट दामिनी
देखो कैसे बुलबुलें भी उर्दङ्ग मचाती ?
वों भी क्षणिक उसी में असि होती

क्लेश विरह तनु अपने आँगन से
क्या विशिखासन विशिख टङ्कार ?
कोई कुम्भीपाक कोई विहिश्त में विलीन
क्या दैव प्रसू , तड़पन सुनें कौन ?

बूँद – बूँद खनक प्रतीर दृग धोएँ
इस उद्यान इन्दु अर्क पथ में विलीन
रैन मयूक वृन्द निलय नतशिर
हाहाकार में मचली झाँझि मृदङ्ग

सिन्धु गिरी मही तुण्ड में विस्मृत
तरुवर नृत्य ध्वनि में झङ्कृत
त्वरित घनीभूत क्लेश वृतान्त उगलती
क्यों वेदना झङ्कृत बगिया विस्मित ?

मैं भी आहत अहनिका खल प्रचण्ड
कटाक्ष तड़ित् शोणित वह्नि में
कौतूहल इन्तकाल द्विजिह्व में प्रच्छन्न
त्रास – सी अली हूँ उद्भिज तड़पन

14. सतरङ्गी

सुबह – सुबह देखो सूरज आया
इसकी कितनी है सुन्दर लालिमा !
नीलगगन सतरङ्गी स्वरूप – सी
वसुन्धरा जीविका की परवरिश है

खेत – खलियान भी है हरे – भरे
सुन्दर‌ – सुन्दर कितने मोहक !
छोटे – छोटे कलित कलियाँ तरुवर
कुसुम मीजान कितने मृदु धरा !

खेचर कलरव कितने अनमोल !
कितने दिलकश पन्थ पङ्ख निराले !
उड़ – उड़के होते भूधर तस्वीर
हौंसले बुलन्दी के भी अभीरु आलम

अर्णव की निर्मल कल – कल तरङ्गित
उस व्योम को करती नित नतशिर
अंतर्ध्वनि – बहिर्ध्वनि में उज्ज्वलित प्राण
सर्वस्व न्योछावर में होती विलीन

निशा निमन्त्रण विधु करती ज्योत्स्ना
क्रान्ति कारुण्य मकरध्वज स्याही
शबनम लिबास कमलनयन धार में
समीर भी अनन्त चञ्चलचित्त सार में

15. पङ्खुरी

टूट पड़ा पलकों से आँसू बनके
मत पूछ मेरी हालात इस गर्दिशों में
बिखर गया हूँ पङ्खुरी के पङ्ख से
मैं साँझ बन चला इस दीवानें के

अजनबी राही में गस्ती , ठहराव कहाँ मुझे ?
व्यथा भरी शहर में मैं भी फँस गया
क्यों काँटे भर पड़ी इस तन में ?
इस शोले वेदन में , क्यों मैं बावला !

दुआ दस्तूर के भी आलम नहीं
लहू धार भी बन चला पसीनो से
किस्मत मेरी स्वप्निल में कफन
धराशायी एतबार मेरी दहलीज़ के

नफरत रञ्ज के घूँट – घूँट में
अविचल रहा दुर्दान्त अहर्निश
मैं तड़पन ग्लानि में पतवार बना
निर्मम चन्द्रहास शमशीर धार बनें हम

मञ्ज़िल की राहों में धूमिल आँसू
भटक गया मैं , ख़्यालों से भी हूँ गुमनाम
होश में नहीं असमञ्जस हिय क्षिति से
विलीन में अपरिचित भव छोड़ चला

16. तन्हा मैं

उड़ जा धूल उस महिधर में
यहाँ धारा धार में द्वेष भरा
मत रूक ढ़ाल तरणी को जगा
प्रवार वसन्त में गरल व्याल

पथ – पथ प्रतिशोध क्यों ज्वाला ?
अवशी जीवन अवृत्ति विषाद
छीन लिया तिनका नहीं है कुन्तल
ओझल भी नहीं जीवन चषक

दिलकशी भरी कुच कीस हरण
लूट गया हूँ सदेह सीकड़ में
तीहा नहीं शाण उत्पीड़न में पड़ा
पीर आक्षेपी लौ कुढ़न कराह

तन्हा मैं बिखरा रणभेरी समर में
मुदित मशगूल रूपहली आभा
व्याधि रक्तिम मन्दाग्नि अंगार
प्रखर नूर मञ्ज़िल नीड़ नहीं विस्मित

दुकूल भुजङ्ग तृण तिमिर अलङ्गित
क्षितिज में मैं विलीन अनूप के
गुञ्जित विरक्त कलसी इत्मीनान
इन्द्रधनुष उषा अश्रु अक्षुण्ण

17. पङ्ख

तितली रानी घूमड़ – घूमड़कर
कहाँ जा रही कौन जानें ?
कभी इधर गुम होती कभी उधर
न जानें कहाँ वों चली रङ्ग मनाने !

कल – कल कलित पुष्प आँगन में
पन्थ – पन्थ पङ्ख क्यों बिखेरती ?
छोटी – छोटी रङ्ग – बिरङ्गी शहजादी
सौन्दर्य – सी क्यारी रङ्ग फैलाएँ

बढ़े चलों उस गुञ्जित किरणों में
मधुरस मधुमय कलियों में त्यागी
मनचला प्याला उन्माद लिए सब
महफ़िल शृङ्गार करती किनको अलङ्गित !

यम भी साक़ी मतवाला हूँ बन चला
राम नाम सत्य की गूँज नहीं
ध्वनि प्रतिबिम्ब जयघोष में विलीन
पथिक पन्थ में है अँधरों की ज्वाला

उड़ – उड़ छायी क्षितिज किरणों में
बढ़ चला अनुपम गिरी मधु सिन्धु
असीम नीहार तीर सरसी प्रभा
देवदूत परेवा ईश पैग़ाम भव में

18. सुनसान

मैं आया सुनसान जगत से
क्या करुणा – सी क्या काया ?
तुम उठें हो इस धरा से
वाम से ही जलती है ज्वाला

बीत चुकी है इस पतझड़ में
मृदु वसन्त की अंतिम छाया
इस कगारे जीवन में सब हम
विचलित मधुकर मतवाला

धू – धू जलती इस तड़पन में
मोह का बलिण्डा प्रज्वलित माया
रख लें तुम कष्ट धैर्य अपना
रहती सदा अखिल निर्जन प्याला

इस खण्डहर – सी ख़ादिम ख़्याति
तिरोहित न्योछावर स्फुर्लिङ्ग क्यारी
तृण समर्पित क्षिति‌ क्षितिज में
अकिञ्चन अगम्य अट्टहास अंगारा

अनवरत आतप उत्तेजित उज्ज्वल
इन्द्रधनुषीय शकुन्त उन्मुक्त कशिश
स्वर्ण – रश्मि स्तब्धता – सी साखि
विह्वल व्याधि निरीह निशा गर्वित

19. अश्रु धार

एक बार जब नवघोष की गूञ्ज
नव्यचेतन क्या ओझल विस्मृत – सी ?
चिरन्तन भोर – विभोर अंजीर में
प्रदीप पथ प्रवल निर्झर नीहार

वात्सल्य कारुण्य आसक्ति अलि
उम्दा प्रणय ध्वनि केतनधार
कलित सारङ्ग ऊर्मि पुष्पित काया
सिन्धु लहर परिष्यन्दी होती उस अरुक्ष

अलिक चङ्गा अनभिज्ञ इस उद्यान
ज्योति समीर अर्ण तड़ित् आलम्ब
मन्द – मन्द ईषद्धास कभी आक्रन्दन
वारिद के वसन्त तड़ित् झलमल

किसी घड़ी क्षिति वात से हुँकार करती
यामिनी सविता गन्धतृण – सी फर्ण
विरह विकीर्ण उन्मीलित अश्रु धार
नतशिर प्रहरी सदा दे अंजली

अबाध रही उद्वेलित कलुषित में
कुसुमकोमल कर्णभेदी झङ्कृत करती
अलङ्कृत उन्मुक्त पुलकित गगन में
अनुरक्त आह्वान अंगीकृत करती

20. कल्पित हूँ

काल समय के चक्र में अम्बर
नव्य शैशव या कितने हुए वीरान
असभ्य सभ्य की संस्कृति में
नवागन्तुक जीवन चेतना धरोहर

इब्तिदा सभ्यता प्रणयन भूमि
तिलिस्मी संस्कृतियाँ अपृक्त सङ्गम
शैवाल मीन आदम मानव
शनैः – शनैः जीवों का विस्तरण

बढ़ती मर्दुम शुमारी तुहिनांशु
हरीतिमा जीवन पड़ रही कङ्काल
विलुप्ति कगार बढ़ चलें अकाल
बञ्जर समर में अनून कल विकल

विष दंश रश्मि अश्मन्त
व्यथा पड़ी घूँटन में क्या प्रचण्ड ?
कँपी – कँपी धरा में रुग्णता क्यों ?
मुफ़लिस दोष का क्यों कलङ्क ?

विवश पड़ी , कल्पित हूँ , क्षणभङ्गुर में
ज्वाला व्यथित वात्सल्य बोझ ज़बह
दुर्भिक्ष से विकराल ख़ञ्जर में क्षुरिका
निर्ममता अनुशय मशक्कत तनाव

21. आखिर क्यों

इंसान की मुसीबत क्या है ?
धन – बीमारी – मृत्यु
सम्पदा के दोहन से
अपनी पेटी क्यों भर रहें लोग ?
लोग धन के लिए तड़प रहें
मनुष्य धन का किङ्कर क्यों ?
आखिर मनुष्य ही ऐसा क्यों ?
मनुष्य की मर्यादा खत्म क्या !
क्या इंसान मनुज हैं या दनुज
अपहरण – लूट – हत्या
मनुष्य भ्रष्ट क्यों हो रहें ?
मनुष्य , मनुष्य के दुश्मन क्यों ?
क्या मनुष्य जल्लादों हैं ?
क्या यहीं मानव सभ्यता है !

22. कहर

कब थमेगा कोरोना का कहर
जग कर रही है हाहाकार
कहीं पर गाड़ रहें ढ़ेर भरी लाशें
कहीं हो रहीं दाह संस्कार
कोरोना के देवारि से
आखिरी साँसे गिनता भरोसा किसका
आँसू में भी औसत तलाश रहें लोग
गरीब को मरते तमाशा देख रहें लोग
मदद करने के बजाय भाग रहें लोग
बढ़ती जा रही मुर्दों का शहर
कहीं उपहास से तो कहीं साँसों से
ज़िन्दगी और मौत से तड़प रहें लोग
आखिर कब थमेगा कोरोना कहर !

23. वाह रे चीन….!

वाह रे चीन….!
दुनिया कोरोना से कराह रही
कोरोना का पैदाइश
वुहान जश्न मना रहा
मुफ़लिस की मृत्यु की तादाद
कलेवर अंत्येष्टियाँ हो रही
कहीं ऑक्सीजन नहीं
कहीं देने पर रही रिश्वत
आर्थिक दोहन की पुरोगामी
पारासिटामोल व एजिथ्रोमाइसिन की किल्लत
श्मशान हो रही देवालय
अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं
कहीं है चुनाव जीतने का जश्न
कहीं विद्यार्थी का ख़ञ्जर भविष्य
स्वास्थ्य कर्मी की नुकुरबाजी
बन रहे हैं पाप की भागीदारी

24. शोणित धार

दिन – दिन बितते तिरते – तिरते तिमिर को
कोई आमद तो कोई होता निर्वाण
जीवन क्षणभङ्गुर – सी न रहता तन को
फिर भी होता हीन क्यों मानव इस फण के ?

तम भी ढ़ुलकती आती भोर – विभोर के खग
रवि भी क्षितिज प्रतीची से लौटती आती नभ को
जग करती हुँकार नतशिर सदा प्रतीर मरीची को
स्वर नाद छायी पुष्प कलित अली मृदङ्ग मग्न में

निशा इन्दु जोन्ह नैन बिछाती दूर होती असित में
निमन्त्रण ऊर्मि ऊर्ध्वङ्ग को दे जाता झीं – झीं झङ्कृत
ऊँघ – ऊँघ ऊँघते मही मेरू फ़लक के भव
उलूक जाग्रत थी स्पन्दन श्याम शिखर प्रखर के

लें जाता प्राण तरुवर के तपता है कौन ?
फिर क्यों मानव ही रोता स्वप्नों के ख़्यालों में ?
बिछाती कहाँ ? , सँवारने चला रम्य रमणी बगिया के
पुष्कर में उदक नहीं होता यहाँ , यम हलाहल पला

मिट्टी , मिट्टी ही नहीं प्रस्तर पड़ा न जाने शोणित धार
दुर्दिन दिशा में पिक रव झँझा झङ्कोर प्रतीर प्रलय के प्रचण्ड
यह मृदु कौतुक निठुर बनके बाट जोह दीप द्युति के
पङ्क्ति नहीं सरित् के तरी विचलित मँझधार में किञ्चित नहीं

2

1. पितृ परमेश्वर

गिरिराज होते जहाँ नतशिर
जगन्नियन्ता के हैं जो अरदास
महारथी हैं वों , सारथी भी
ख़्वाहिशों के हैं सरताज

ख़्वाबों के हैं चिन्त्य कायनात
मशरूफ़ियत मकुं फौलाद सरीखे
जीवन पर्यन्त अजूह स्कन्ध स्तम्भ
महाच्छाय अहर्निश कुटुम्ब किमाम

सकल दिव्यता सन्तति तात
तालीम ड्योढ़ी विरासत दामन
मुखरित हुँकार प्रखर नहीं
मुआफ़कत नय वृहत नाज

सान्त्वना सहचर अचिर विधु
ज़मीर व्यञ्जना निध्यान पन्थी
निर्व्याधि फ़रिश्ता अनुगृहीता हम
गोरवन्त गरिमा विप्लव भीरुता

चक्षु सैलाब विहङ्ग मञ्जरी
चिराग दीप्तिमान उज्ज्वल धरा
परिणति सर्वेश्वर नियत रहबर
पितृसत्तात्मक अधिष्ठाता खलक

2. मैं मिल्खा हूँ

गिरी का दहाड़ नहीं
मैं सागर की धार हूँ
देश की तवज्जोह ही
मैं चेतक मिल्खा हूँ

कौन जाने मशक्कत मेरी ?
श्रमबिन्दु कलेवर जज़्बा
अभ्यस्त सदा हयात यदि
अक्षय नायक पथ प्रशस्त

न्योछावर मेरी इस ज़मीं
तामरस मुक्ता अब्धि नभ
ख़िरमन के उस सौगात
महासमर कुसुम कली नहीं

अशक्ता ही मेरी पुरुषार्थं है
पराभव नहीं , अभिख़्यान दस्तूर
स्पर्द्धा मन्वन्तर साहचर्य रहा
अवलुञ्चित सौरभ मधुराई

मेरी इतिवृत्त की दास्ताँ ऋक्
तालीम कर , कायदा शून्य
तरणि प्रभा उस व्योम का
मुक़द्दर मीन मैं उस नीरधि

3. माँ की पीड़ा

मुफ़लिस माँ की पीड़ा
जग में समझें कौन
रोती – बिलखती सदैव
एक रोटी , शिशु के लिए

आसरा नहीं किसी का
इम्दाद की चाह भी नहीं
बुभुक्षित शिशु को देखके
अंतर्भावना प्रज्वलित उठती

अपने वक्षस्थल के दहन से
नियति का अपकृष्टता क्या ?
भूख मेरी कमजोरी नहीं
बस शिशु मेरे भूखें न हो

कराहने की दिलकशी नहीं
बस एक रोटी , तकदीर में नहीं
न जाने क्या होगा अंजाम ?
है सत्यनिष्ठा कर्तव्य मेरी शक्ति

माँ की आह्लाद का क्या सङ्गम !
बच्चें की जुहु क्रन्दन आश्रुति हो
माँ की सच्चिदानन्द प्रीति महिमा
अंजलिबद्ध आस्था आकांक्षा है

4. अक्षुण्ण

क्या गारूड़ गो सपना थी !
चेतन मन उस अम्बर में
भवसागर पार चक्षु सुमन में
त्रास – सी आलम्बन थी

वास्तविकता का सूरत नहीं
मुस्तक़बिल वारदात इङ्गित है
अभिवेग परिदृश्य नादिर ही
शून्यता शिखर गाध नहीं

बिन्दु से अक्षुण्ण अनुज्ञा ही
प्रहाण गर्दिश रेणु है
व्योम द्विज परवाना नश्वर रहा
पौ फटा आमद प्रत्याशा है

ओझल विभा तिमिर नहीं
मृगतृष्णा का इन्द्रियबोध दीप्ति
सारङ्ग तारिका का अनन्ता
आकर्ष तमन्ना उस नग में

त्रिधरा नज़ीर इन्तिहा भव
तिमिस्त्रा का खद्योत ऊर्मि
गर्व – अग्नि विकट इस धारा का
प्रीति विभूति की अरमान नहीं

5. ज्ञानशून्य त्रिकाल

मौन क्यों है विश्व धरा ?
रुग्णता का सर्वनाश कर
परिहार का कलश भरा
यन्तणा नहीं , वफ़ात रहा

शून्यता की बटोही नहीं
कोलाहल भरी ज़िन्दगानी है
तमगा तामीर पुहमी परसाद
महफ़िल समाँ अख़्तियार रहा

तृष्णा लश्कर हाट जहाँ
व्यभिचार घात साया है
आतप का वैभव प्रचण्ड
काश्त कल्लर गुस्ताख़ रहा

हीन क्षुधा निराहार विषाद
किल्लत निघ्न आरोह अभिताप
निश्छल नहीं , प्रतारक परजा
पाशविक तशरीफ़ आलिङ्गन क्यों ?

क्या प्राच्य दस्तूर थी ! अब है क्या ?
झषाङ्क दिलकशी दर्भासन है
दुनिया के चलचित्र आख़्यान में
उच्छिन्न हो रहा ज्ञानशून्य त्रिकाल

6. पारावार

घेर – घेर रहा उस नभ को
शिथिल नहीं , उग्र है
भानु मृगाङ्क मद्धिम क्यों ?
क्या प्रतिघात है नीरद का ?

कोई अपचार तो नहीं !
या दिवाभीत प्रकाण्ड क्या ?
गिरी का तुगन्ता न देख
देख पारावार की विरक्ति

व्यामोह अनुराग परवरिश है
मनोवृति समरसता वालिदा जग
निर्झरिणी वामाङ्गिनी जिसका
अभिवाद नित करती उस भूधर

त्रिशोक है कलित अलङ्कृत
प्रसून कानन मञ्जूल दिव्य
निदाघ अनातय का आलम नहीं
मेह ज्योतित आधृत जलावर्त

शून्यता प्रलय निराकार नहीं
क्षुब्द भरें मही प्राज्ञता निरामय
हलधर का ही सम्भार रीति
तनी महरूम पीर समझें कौन ?

7. क्या इत्तेफ़ाक है ?

क्या इत्तेफ़ाक है जीवन शहर का ?
मुलाज़मत के बिना आमद नहीं
कर्तव्यों के बिना कुटुम्ब नहीं
क्या कहूँ इस गरोह पटल का ?

यथार्थ – मिथ्या का दोष नहीं
अपरती ही अशरफ़ मक़ाम
पुरुषार्थं ही आफ़त का धार
शाकिर सतत प्राज्ञता सिद्धि ध्येय

उलझन स्याही में प्रदीप नहीं
निर्वाह का आघात यहाँ भी
कर्मण्य रहो , नदीश पतवार – सा
अचल अविनाशी हैं वों भी तुङ्ग

महासमर जीवन का सार तत्त्व
अभिजीत – अपमर्श संशय यहाँ
जयश्री अवधार दुसाध्य यहाँ
प्रारब्ध इत्तेफ़ाक उद्यम ऐतबार

साक्षात् शिखर पुरुष अनल ऊर्जा
इन्द्रोपल पारगमन कमल नयन
दूभर नहीं कुछ , है आवर्त अखण्ड
चित्तवृत्ति अथक अनुरञ्जन उदय

8. आलिङ्गन

जीवन नहीं , सृष्टि साक्षात्
द्विज अम्बर वामा अनुराग
वात्सल्य जलधि अखण्ड प्रवाह
विरह – मिलन किरीट धरणी

शगल गुलशन आमोद मीत
बहार कलिका पुहुप वेला यहाँ
अस्मिता पैग़ाम कर्तव्यनिष्ठ
अवसान नहीं , अगाध दिव

निराकार तुन्द में होरिल इस्लाह
सारङ्ग नहीं , विहङ्गम तरङ्ग
प्रतिच्छाया का इम्तिहान नहीं
इम्दाद प्रियतम अभिभूत सुरभि

मृगाङ्क इन्दुमती तारिका अभ्यन्तर
आभामय मुक्ता , शून्य ज्योति
तिमिर वनिता आवर्तन अनीश
आबरून पराकाष्ठा रजत व्योम

आसरा वामल मरीचि धनञ्जय
अजेय ध्वजा सऋष्टि आलिङ्गन
अनुरक्ति मेल , आविर्भाव प्राण
सर्वदा आयुष्य भँवर रीति पतङ्ग

9. हैवान क्यों ?

जात – पात का विष दंश
अस्पृश्य – लिहाज व्याल दृश
मवेशी साम्य निस्बत रहा
मानुष डङ्गर विदित क्यों ?

बिराना इंसान हैवान क्यों ?
आत्मग्राही आक्षिप्त नृलोक
हत प्रमाथ देहात्मवाद जहाँ
पाखण्ड अनाचार हर्ज अंजाम

आमिल दर्प – दमन आबरू
अभिवास रहा दज्जाल भव
मुलज़िम नहीं , वों मनीषी है
महाविचि – करम्भबलुका कृतान्त मही

मानवीयता मातम कराह रही
मदीय व्यथा समझें कौन ?
सम्प्रति भव्यता में है अभिमर्षण
आत्मीय में हो रहा द्वेष – घृणा

विभूति बुभुक्षा जग – संसार
कर रहें क्यों हयात – चित्कार ?
त्राहिमाम – त्राहिमाम करता भव
ईश्वर नहीं , अनीश्वर अक़ीदा

10. पहली बूँदें

सावन की पहली बूँदें
जब पड़ती है धरा पर
लहर उठती इस मही से
सीलन कोरक प्रतिमान

उमङ्ग भरी व्योम धरा सिन्धु
प्रसून मञ्ज़र मन्दल प्रस्फुटित
आदाब कर उस तुङ्ग व्योम को
अभ्युन्नति हो इस गर्दिश सुन्द

खलक तञ्ज मे श्वास का खौफ
क्यों निर्वाण हो रहें हरित धरा ?
प्रभूत अतृप्त तृष्णा क्यों जहाँ ?
प्रसार नहीं , है यह सर्वनाश

सुनो , जानो , समझो इस धरा को
सतत वर्धन दस्तूर साहचर्य रहा
मुहाफ़िज़ ख़िदमत कर अभिसार का
देही प्राणवायु इन्तकाल को बचा

निजाम फ़रमान हुक्मबरदारी कर
अंगानुभूति जन को अग्रसर कर
निलय – निकेतन पर्यावरण जहाँ
वैयक्तिक जीवन्तता वसुन्धरा वहाँ

11. क्षिति प्रभा

चिड़ियाँ आयी , चिड़ियाँ आयी
साथ में एक खिलौना लायी
क्या करूँ इसका , क्या करूँ ?
खेलूँ या इसको तोड़ दूँ

मत देखो उस नभ में
क्या नीली – सी अम्बर धरा है ?
कहीं चिड़ियाँ की चूँ की राग
सुरीला मधुर मनोरम – सा

कितना प्यारा अम्बर घना है !
मेघ का आसरा क्यों है जहाँ ?
झमाझम करती वर्षा पानी
हलदर का अद्भुत उल्लास है

इन्द्रायुध की क्या है करिश्मा !
व्योम सप्तरङ्गी विश्व धरा है
भाविता का तिमिर यामिनी
चौमासा का भी इस्तिक़बाल है

हरीतिमा का सुन्दर जग यहाँ
क्षिति प्रभा का आबण्डर है
द्रुतगामी समीर वारिद नभ
त्रास – सी मेदिनी तृप्त करती

12. बन जाऊँ होशियार

मुझे मञ्जुल चन्दा ला दो
मुझे लालिमा सूरज ला दो
ला दो सारा जहाँ – संसार

खेल सकूँ हम , झूम सकूँ हम
कर सकूँ हम बड़े नाम
मिताली बनूँ , बन जाऊँ नेहवाल

मुझे खिलौना नहीं है लेनी
ला दो कॉपी – किताब – कलम
लिखूँ – पढ़ूँ बन जाऊँ होशियार

मुझे मेला घूमना नहीं है कभी
घूमना है प्राचीन सङ्ग्रहालय
देख सकूँ मैं प्राचीन गौरव गाथा

मुझे दास्ताँ नहीं सुननी आपकी
सुननी है देश का समूचा इतिहास
जान सकूँ देश का हम अद्भुत ज्ञान

जन्मदिन नहीं मनाएँगे हम कभी
लगाएँगे उसी दिन एक गुल्म पेड़
लेंगे हम ऑक्सीजन हमेशा भरपूर

शहर में रहेंगे नहीं हम कभी
हम रहेंगे अपने रम्य देहात में
खाएँगे हम आम लीची अमरूद

13. पूछूँ मैं क्या ?

अंतः करण का सन्ताप नहीं
आह्लाद का अभिनन्दन है
लोक जगत का पूछूँ मैं क्या ?
पीतवास आपगा सायक है

होता ख़ुदग़र्ज़ी रङ्क जहाँ
नृशंसता ब्योहार का बहार
रुग्णता उपघात समावेश यहाँ
निवृत्त विराना आश्लेष इज़हार

सङ्कुचित रहा प्रवाहमान सरिता
दिनेश निदाघ दिप्त – प्रचण्डमान
अनागत अनाहार अनधिकारिता
तवायफ़ उलफ़त जग अंघ्रिपान

अनात्मवाद अक्षोभ होता बेजान
चण्ड – दहन अभिहार ईप्सा
अकिञ्चन तिमिर वैताल अग्यान
अवहत अवसान परीप्सा – प्सा

उद्विग्नता प्रतिशोध प्रतिघात ज्वाला
विकृति विकार प्रलोभन आहत
देही – अलूप वजूद भी दीवाला
निपात जगत हो रहा अतिहत

14. स्वच्छन्द हूँ

रोटीं नहीं धरा चाहिए
परवश नहीं स्वच्छन्द हूँ
निर्वाण नहीं प्राण चाहिए
पद्याकर कलित अम्बुज हूँ

मानव हूँ कल्पित काया नहीं
आन – बान – शान की प्रभुता मेरी
कोरक प्रसून हूँ मुस्तक़बिल काहीं
दिव्य व्योममान उन्मुक्त कनेरी

कोकिला का वसन्त नाद हूँ
नखत अम्बुद क्षोभ विराम
शून्यता अनश्वर गात हूँ
नैसर्गिक तरणि प्रबल अभिराम

पारावार का अभरम प्रवाही
दलक घोष अतृप्त नीर
अप्रगल्भ जलार्णव अम्बुवाही
सदा उठान हिल्लोल अशरीर

नीर व्योम धरा स्वच्छन्दता
ओज प्रकृतिमान भव्य भव
कणिका प्रकीर्णक इन्द्रच्छन्द
जीवन वृत्ति आविर्भाव प्रभव

15. वों घड़ी

लौटा दें मुझे वों घड़ी
बचपन हमार हो जहाँ
माँ के हाथों की वों छड़ी
बच्चों का झुण्ड हो तहाँ

नदियों का वों पगडण्डी
उछल – उछल , कूद – कूदकर
जहाँ शैतानों की उद्दण्डी
खेल – खेल में हो निकर

पाठशाला में होता आगमन
आचार्यों का मिलता बोधज्ञान
शागिर्दं कर जाता समधिगमन
सदा हो जाता वों महाज्ञान

अभिक्रम का रहता प्रयोजन
कुटुम्ब प्रताप का है अपार
मञ्जूल प्राबल्य हयात संयोजन
ज़िन्दगानी का यहीं अपरम्पार

कलेवर का हो जाता इन्तकाल
पञ्चतत्वों में समा जाता प्राण
तपोकर्मों का आदि अंत त्रिकाल
सृष्टिकर्तां में समा जाता अप्राण

16. मैं तरफ रही

मैं तरफ रही अपनी काया से ,
मेरी कराहना क्यों नहीं सुन रहें ?
मैं अधोगति के कगारे हो रही ,
मैं और कोई नहीं , पर्यावरण हूँ ।

मत काटो मेरे तरुवर छाया को ,
क्या बिगाड़ा है तेरा मनुज ?
जीने क्यों नहीं देते मुझे ?
मेरी अपरिहार्ता तू क्या जानों ?

जीवों का आस है जहाँ ।
हयात इन्तकाल क्यों कर रहें ?
समभार का आत्मविस्मृत द्रुम ,
जियो और जीने दो सदा जहाँ ।

मत करो पर्यावरण का उपहास
क्यों कर रहें हो खिलवाड़ ?
रक्तस्त्राव का गात प्रपात
अब न करो मेरी दाह संस्कार

हरीतिमा ध्वस्त , हो रहा विकराल
पानी की है अकुलाहट अब जहाँ
किल्लत होगी ऑक्सीजन की तब
दुनिया का होगा हयात इन्तकाल

17. दो पैडेल

दो पहलूओं जीवन के
साइकिल के हैं बुनियादी रूप
दो पैडेल के करीनों से
अग्रसर रहने का सन्देश देती

पथिक की पथ की काया
निर्मल करती मलिन डगर
सहचर रहती सदा हमार
सतत पोषणीय की धारणा

उज्ज्वल हो हमार परिवेश
करती रहती सदा हर काम
न थकती न उफ़ करती
बढ़ती चलती हमार कदम

चौकस करती अचेतन मन को
ट्न – ट्न की स्वतः नाद से
रहो साथ हमारे प्रगतिशील
जन – जन तक पहुँचाती पैग़ाम

सादगी आसरा अलम्बित सदा
पुनीत करती गरोह हमार
प्रभञ्जन रफ़ाकत सदा
पाक करती विश्वपटल राज

18. साधना

कर साधना ऐ मुसाफिर
जलसा से ही पृथक हो जा
अर्जुन की गाण्डीव तू बन
बन जा श्री कृष्ण सुदर्शन

महासमर के डगर पर सदा
व्योम की उस अनन्त तक
रख आस सत्यनिष्ठ कर्तव्य की
कामयाबी की उस बुलन्दी को छू

रह अचल उम्मीदों को रख
समय का पाखी तेरे पास
वक्त की अहमियत आलोक
गुमराह न होना अपने पथ से

शून्यता की नभ को न देख
चढ़ जा उस अगम नग पर
ख़्वाबों की जञ्जीरों से
अपनी महत्वाकांक्षा समझ

ब्योहारों के बयारों सङ्ग
इसरारों का उर बाड़व रख
मुकद्दर का प्रभा गगन है
हौंसलों का अवदान तेरे पास

उन्मादों का हैं दास्ताँ जहाँ
सत्य राह पर चल सदा
ज़िन्दगी का यहीं मकसद जहाँ
विजय का भी माधुर्य सदा

19. क्षितिज

मन्द – मन्द बयारों के झोंके
अंतः करण को विचलित करती
विहग की कूजन नाद
झङ्कार – सी हिलकोरे करती

मधुमास आमद परिपेश
नैसर्गिक उछाह भरती
नवपल्लव कुसुम प्राघूर्णिक
व्योम – धरा आदाब करती

निदाघ तीप्त तरणि धरा
अंशुमान करता क्षितिज कगार
जग – आतम का सम्भार जहाँ
यामिनी मृगाङ्क की निगार करती

घनघोर अम्बू प्रदीप मुकुल
दिव्योदक सौन्दर्य प्ररोह धरा
ताण्डव घनप्रिया हुँकार
उद्दीप्तमान हसीन अवनि आलम

अघम संवेगहीन अनी अहवाल
भावशून्य शिथिल पड़ जाती जहाँ
दहल उठती रूह की काया
वहीं अरुणिमा समरसता सानन्द

20. मैं क्या कहूँ ?

मैं क्या कहूँ इस धरा को ?
प्रकृति का मनोरम दृश्य जहाँ
हरेक जीवन का बचपन है
नटखट नासमझ अल्हड़ – सा

प्रकृति की सुन्दरता अत्योत्तम
पर्वत नीड़ सागर हरियाली जहाँ
पर्वत की विलासिता को देखो
वृहत दीर्घ तुङ्ग गगनचुम्बी धरा

उस स्वच्छन्द परिन्दा को देखो
नौकायन सौन्दर्य सरिस कान्ति
मनुज से इस्तदुआ है मेरी
प्रभाहु हैं , प्रभाहु रहने दो मुझे

पारावार वसुधा की प्रदक्षिणा
पुनीत – मञ्जुल – दर्प – वालिदैन
ज़िन्दगानी अनश्वर कलेवर
मतहमल प्रवाहशील अनाशी

जीवन वृतान्त हरीतिमा तश़रीफ
आलिङ्गन करती सारङ्ग पावस
नभचर का आशियाना जहाँ
आतम अचला आलम्बन

प्रभाकर प्रीतम उज्ज्वल प्रभा
पराकाष्ठा प्रतीतमान प्रभुता
प्रदायी कर्ण कृर्तिमान वजूद
चक्षुमान अखिलेश्वर वसुन्धरा

सुधांशु सौम्य व्योम निलय
कालचक्र उद्दीप्तमान प्रकृति
सौरजगत आबोहवा पद्निनीकान्त
शशिपोशक अपरपक्ष कान्तिमय

21. दास्ताँ

इतिवृत्त का क्या सुनूँ मैं ?
गुलामी की जञ्जीर जहाँ ।
कोई औपनिवेशिक होते देखा
किसी को उपनिवेश धरा ।

साध्वी वनिता का यन्त्रणा
ज्वाला में धधकते देखा ।
अस्पृश्यता व सहगमन का
कराहने का नाद देखा ।

ताण्डव छाया हाशिया का
अपनों का अलगाव देखा ।
क्या कहूँ उन दास्ताँ को ?
दासता क्लेश उत्पीड़न देखा ।

त्रास – सी दुर्भिक्ष काल का
सियासत आर्थिक सङ्कट देखा ।
सम्प्रदायों का बहस – मुबाहिसा‌ को
मानवीयता घातक हनन देखा ।

रक्तरञ्जित कुर्बानियों की दास्ताँ
वतन पे प्राण निछावर होते देखा ।
विरासत – संस्कृति – धरोहर प्रताप
फिरङ्गीयों का परिमोश होते देखा ।

22. वेदना – सी

वेदना – सी मुस्कान क्यों ?
क्यों है कुण्ठित काया ?
क्या छुपा है भग्नहृदय में ?
सतत क्लिष्ट है आह्निक

अवसाद तड़पन का भार
वहन क्यों कर रहें ?
व्याल का संहार है क्या ?
आफ़त का मीन जहाँ

महिमामण्डित दुनिया में
महासमर का बेला है
त्रास का विषाद क्यों ?
कर्कश का आतप जहाँ

निबल – सा अनिभ्य कलेवर
ख़ुदग़र्ज़ का अपारा है
अभ्यागम का आसरा कहाँ
मृगतृष्णा का आवेश जहाँ

मक्कारी का उलझन है
मन्दाक्ष का जमाना नहीं
अपहति रहा आदितेय का
नृशंसता – सा इफ़्तिख़ार नहीं

3

1. इन्तकाम

मत देख उस भुजङ्ग को ,
गरल का घड़ा भरा है ।
ह्रदय की वेदना समझों
मारुत की बवण्डर है ।

मत पूछ उस लालिमा को ,
उनकी ज्योतिमान धरा है ।
कर मशक्कत हो प्रभा ,
वों बुलन्दी का आलम्भन है ।

मत सुन उस भ्रममूलक को ,
मिथ्या का पुष्ट आबण्डर है ।
छल – प्रपञ्च परवशता ही ,
निशाचर का कुजात है ।

मत कर उस अशिष्टता को ,
अधर्मपना अभिशप्त साँकल है ।
अपकृष्ट अनावृष्टि बाँगुर गात ही ,
घातक अंज़ाम का द्योतक है ।

मत हँस उस मुफ़लिस को ,
दमन का व्यथा असह्य है ।
वक्त का आसरा है उसे ,
इन्तकाम का ज्वाला उग्र है ।

2. हड़प्पा सभ्यता

सिन्धु नदी का प्रवाह जहाँ
हड़प्पा सभ्यता का विकास वहाँ
पुरावस्तुओं – साक्ष्यों का अन्वेषण
संस्कृति सभ्यता का है पदार्पण

मध्य रेलवे लाइन तामील दौर
बर्टन बन्धुओं इत्तिला आईन से
आया हड़प्पा सभ्यता का इज़्हार
नई संस्कृति नई सभ्यता का दौर

बहु नेस्तनाबूद भी बहु प्रणयन भी
नगरीकरण का आसास उरूज़
निषाद जाति भील जानी काया
मिलें मृण्मूर्तियाँ वृषभ देहि

चार्ल्स मैसेन की पहली खोज
कनिंघम आए , आए दयाराम साहनी
आया मोहनजोदड़ो का वजूद भी
रखालदास बनर्जी का है तफ़्तीश

अन्दुस – सिन्धु – हिन्दुस्तान रूप
बृहत – दीर्घ इतिवृत्त सभ्यता
क्षेत्रीयकरण – एकीकरण – प्रवास युगेन
मिला अवतल चक्कियाँ का राज

विशिष्ट अपठनीय हड़प्पा मुहर
कांस्य युगेन का कालचक्र आया
मोहनजोदड़ो , कालीबङ्गा , लोथल ,
धोलावीरा , राखीगढ़ी का यहीं केन्द्र

कृषि प्रधान की अर्थव्यवस्था
और थी व्यापार और पशुपालन
अनभिज्ञ थे घोड़े और लोहे से
जहाँ कपास की पहली काश्तकारी

बृहत्स्नानागार सङ्घ का अस्तित्व
थी स्थानीय स्वशासन संस्था
धरती उर्वरता की देवी थी
शिल्पकार , अवसान का इस्बात है

3. जीवन का प्रादुर्भाव

सौर निहारिका की अभिवृद्धि से ,
हुआ हेडियन पृथ्वी का निर्माण ।
आर्कियन युग का आविर्भाव ,
हुआ जीवन का प्रादुर्भाव ।

हीलियम व हाईड्रोजन संयोजन से ,
सूर्य नक्षत्र का आह्वान हुआ ।
कोणीय आवेग के प्रतिघातों से ,
हुआ व्यतिक्रम ग्रहों का निर्माण ।

ग्रह – उपग्रह का उद्धरण आया ,
आया गुरुत्वाकर्षण का दबाव ।
ज्वालामुखी सौर वायु के उत्सर्जन से ,
हुआ वातावरण का प्रसार ।

सङ्घात सतह मेग्मा का परिवर्तन ,
किया मौसम – महासागर का विकास ।
लौह प्रलय के प्रक्रिया विभेदन से ,
ग्रहाणुओं से स्थलमण्डल का विकास ।

अणुओं रासायनिक प्रतिलिपिकरण से ,
मिला जीवाणुओं से जीवन का आधार ।
आवरण सन्वहन के सञ्चालन से ,
हुआ महाद्वीप प्लेटों का निर्माण ।

एक कोशिकीय से बहु कोशिकीय बना ,
वनस्पति से मानव का हुआ विकास ।
संस्कृतियाँ आई सभ्यताएँ आई ,
है मिला विश्व जगत का सार ।

सम्प्रदायों के परिचायक एकता से ,
मिला टेक्नोलॉजी का आधार ।
राजतान्त्रिक से लोकतान्त्रिक बना ,
हुआ मानव कल्याण का विकास ।

4. हुँकार

कुसुम हूँ या दावानल हूँ
महाकाव्यों का सार हूँ मैं
जगत का प्रस्फुटित कली हूँ
जनमानस का कल्याण हूँ मैं

वात्सल्य छत्रछाया व्योम का
विप्लव पतझड़ हूँ मैं
नूतन सारम्भ उन पयोधर का
मधुमास द्विज हूँ मैं

क्षणभङ्गुर नश्वर मञ्जूल काया
नवागन्तुक मुकुल चेतना हूँ मैं
अचिन्त्य रङ्गीले स्वप्न के
रत्नगर्भा का संसार हूँ मैं

श्रीहीन का करुण वेदना
क्षुधा का ख़िदमत हूँ मैं
अवसाद का है हाहाकार
निराश्रय का शमशीर हूँ मैं

अनुराग प्रकृति पुजारिन
सरिता पुनीत धारा हूँ मैं
सलिल – समीर – क्षिति चर
सुरभि सविता सिन्धु हूँ मैं

अभञ्जित अचल अविनाशी
गिरिराज हिमालय हूँ मैं
सिन्धु – गङ्गा – ब्रह्मपुत्र उद्गम
महार्णव का समागम हूँ मैं

व्यथा हूँ , उलझन हूँ , इन्तकाल हूँ
दिव्यधाम भू – धरा हूँ मैं
किञ्चित माहुर उस भुजङ्ग की
अमृतेश्वर का रसपान हूँ मैं

रश्मि चिराग रम्य उर की
मदन आदित्य नग हूँ मैं
मत पूछ मेरे रुदन हृदय की
अतुल चक्षुजल हूँ मैं

मत खोज तिमिर आगन्तुक को
उसी का अविसार हूँ मैं
जन्म – आजन्म के भंवर से
अंतरात्मा का आधार हूँ मैं

जगदीश का फितरत महिमा
कुदरत का कलित हूँ मैं
मधुऋतु अपार सौन्दर्य
ऋजुरोहित सप्तरङ्ग हूँ मैं

स्वतन्त्र हूँ , जद हूँ , शृङ्गार हूँ
नभ का उड़ता परिन्दा हूँ मैं
प्रलय – महाप्रलय समर का
शङ्खनाद का हुँकार हूँ मैं

5. शिक्षा का हुँकार

इमदाद नहीं , शिक्षा का हुँकार ,
ज्ञान – दक्षता – संस्कार का समाविष्ट हों ।
परिष्कृत अंतर्निहित क्षमता व्यक्तित्व ,
सङ्कुचित नहीं , व्यापक प्रतिमान हों ।

सभ्य , समाजिकृत योग्य ज्ञान – कौशल ,
सोद्देश्य सर्वाङ्गीण सर्वोत्कृष्ट विकास हों ।
प्राकृतिक प्रगतिशील सामञ्जस्य पूर्ण ,
राष्ट्रीय कल्याण और सम्पन्नता हों ।

पूर्णतया अभिव्यक्ति समन्वित विकास ही ,
अंतः शक्तियाँ बाह्यजीवन से समन्वय हों ।
औपचारिक – निरौपचारिक – अनौपचारिक नहीं ,
स्मृति – बौद्धिक – चिन्तन स्तर प्रतिमान हों ।

स्वाबलम्बी – आत्मनिर्भर – सार्थकता नींव ही ,
गाँधीवाद सशक्त प्रासङ्गिक अनुकरणीय हों ।
स्वायत्ता कौशलपूर्ण आत्म – नियमन समाज ,
समतामूलक स्वराज का सदृढ़ राष्ट्र हों ।

सम्प्रभुत्व सम्पन्नता , समानतावादी एकता ,
प्रतिष्ठा , गरिमा , बन्धुत्वा , मौलिक अधिकार हों ।
अखण्डता , अवसरता , लोकतन्त्रात्मक गणराज्य ,
सामाजिक – आर्थिक – राजनीतिक न्याय विचार हों ।

बेरोज़गारी , अपने , रुग्ण आबादी , प्रदूषण ,
अभिशप्त , अन्धकारमय , श्रीहीन , इन्तकाल हों ।
सामाजिक नैतिक आध्यात्मिक मूल्य ही ,
आधुनिकीकरण विकसित आर्थिक देश हों ।

स्वच्छता , सततपोषणीय , स्वनिर्भर भारत ,
आदर्शवादी , सशक्तिकरण , समतामूलक समाज हों ।
मानवीयता , सशक्तिकरण , समतामूलक समाज ,
अनुसन्धान – तकनीकी नवाचारों का प्रगतिमान हों ।

6. शहीदों की दास्ताँ

आजादी का मतवाला हूँ
कुर्बानियों की ज़ज्बात है हमें
भारत के ज़ञ्जीरों को हटाएँगे
उन फिरङ्गियों को भी भगाएँगे

दूध कर्ज चुकाने का वक्त आया
उठ जाओ , दहाड़ दो उसे….
आजादी थी , सबकी चाहत
अपनी जमीं अपना आस्मां

अमर हैं वों वीर सपूतों
जिसने जान की बाजी लगा दी
शहीद हो गये उन वतनों पर
दे दी अपनी अमूल्य कुर्बानी

जान न्योछावर हो रही वीरों की
रो रही माँ की वेदना – सी आँचल
न जाने बहना की वों कलाई
क्यों दूर होती जा रही थी उनसे ?

घायल हिमालय की वों व्यथाएँ
दर्द सह रही थी वों दास्ताँ
आजादी का आवाह्न अब है
जहाँ भारत की सङ्घर्षरत काया

गुलामी की जञ्जीर मुझे ही क्यों ?
उन वीरों से जाकर पूछो….
कालापानी और जेलों की दीवार
तोड़ देंगे हम उन बन्धनों को

खून से खेल जाएँगे हम
मर मिटेंगे उन वतनों पर
छूने नहीं देंगे उन पर को
जहाँ हैं वीर सपूतों की दास्ताँ

7. पलट रही विश्वकाया

मोहमाया के जगत में ,
अवमान – मान का तिलम है ।
सुख – दुःख का मिथ्या रिश्ता ,
दर्द भरी कहानी है सबका ।
कोई जीता रो – रोकर….
आर्थिक के अभिशापों से ।
कोई जीता है हँस – हँसकर ,
चोरी – डकैती – लूट – हत्या से
न किसी का कभी था ,
न होगा कभी किसी का ।
कहीं सत्ता की लूटपैठी है ,
कहीं मजदूरी भी नसीब नहीं ।
क्या यहीं आदर्शवादी है ?
क्यों दिगम्बर हो रहा संसार !
वृक्ष – काश्त हो रही वीरान ,
पलट रही है विश्वकाया ।
जल के लालायित है अब ,
अब होंगे प्राणवायु के व्यग्रता ।
क्या होगा अब इस जगत का !
जब हो जाएगा मानव दुश्चरित्र ।

8. इतिहास

इतिहास हमारा इतिहास
प्रागैतिहासिक का इतिहास
इतिहास रामायण काव्य का
महाभारत काव्य का इतिहास

हमारे देश की गौरव गाथा
गौरव पूर्ण इतिहास
इतिहास उन देशों का
जहाँ से वीरों की गाथा

इतिहास हमारी पहचान है
जिससे मिलती जीवन की कला
इतिहास उन काल की गाथा
जहाँ से हम लोगों का हुआ विकास

इतिहास उन साम्राज्यों का
जिसने विश्व पर राज किया
इतिहास उन संस्कृतियों का
जहाँ से मिलती हमारी सम्पदा

इतिहास उन धर्मों का
जिसको सभी ने धारण किया
इतिहास उन कृषि प्रणाली का
जहाँ से किसान वर्ग समृद्ध हुए

इतिहास उन सैनिक विद्रोहों का
जिससे सभी को आजादी मिली
इतिहास उन विश्व युद्ध का
जहाँ से देश का हुआ विस्तार

इतिहास उन भूगोलों का
जिससे पृथ्वी का ज्ञान हुआ
इतिहास उन वनस्पति का
जहाँ से रोगों का इलाज हुआ

इतिहास उन मन्दिर – मस्जिदों का
जहाँ से किसी धर्म की पहचान हुई
इतिहास उन क्रान्ति की
जहाँ से लोगों का अधिकार मिला

इतिहास हमारा इतिहास
प्रागैतिहासिक का इतिहास
इतिहास रामायण काव्य का
महाभारत काव्य का इतिहास

9. पूछो उसकी चाह ?

गोधूलि लुढ़कती जैसे…
तस्वीर के पीछे छाया
करती आँखें जुगनू के प्यारे
लौट चली विलिन में

ऊपर से ताकता शशि भुजङ्ग
जुन्हाई करूँ या तिमिर में हम
श्याम गगन – सी हो कालिख राख
कहाँ धूल – सी ज्योति विशाल

क्लेश – सी मानव , पूछो उसकी चाह ?
बन बैठा अश्रु से धोता दिव
धार बन रचाती जलद मीन को
क्या भला कान्ति टर – टर तृषित ?

अकिञ्चन पङ्क्त चहुँओर क्यों विस्तीर्ण ?
दुर्लङ्घ्य असीम क्या धुँधुआते क्यों ?
प्रतिबिम्ब भी नहीं तीक्ष्ण त्याज्य को
सुषुप्त है यह या जाग्रत नहीं कबसे ?

चिन्मय चिर नहीं चेतन कहाँ से ?
कौन दे इसे शक्ति विरक्त झिलमिल ?
यह देह नहीं , बिकने का सार !
मशक्कत मेरी भूख से तड़पन क्यों ?

यह तस्वीर के मज़हब पूछो जरा…
गोरा – काला नहीं , क्या जाति तेरा ?
उँच – नीच अपृश्य नहीं , मुफ़लिस हूँ मै
चिर नहीं मसान में भव से निष्प्रभ

10. नव्य रङ्ग

कैसे सुनाऊँ मैं अपनी तफ़सीर ?
एकान्त जिन्दनी मेरी , न कोई तन्हा
विषाद भरी पीड़ा दर्द कराह रही
सहचर भी कहाँ मंशा नहीं मुझसे

दर – दर भटक रहा वो दलहीज़
डगमगा – डगमगा के चलती है राहें
कोई दुत्कारता कोई पत्थर मारता
न जाने कोई , क्यों घूँटन मेरी काया ?

अविकल निर्जन उन्मादों में था भरा
अपलक देखता तस्वीर – सी अम्बर
वसन भी फटेहाल जिसका हर कदम प्रहार
काँटे में पग पर लहूलुहान नृशंस भरा

अशनि पात डाल दो या कहर त्रिशूल
क्षत – विक्षत कर दो जीर्ण रुद्ध अधीर
रूद्र उग्र प्रचण्ड में नृत्य करें नग पे
निर्मल उज्ज्वलित नव्य रङ्ग भर दे ईश्वर

निर्बन्ध स्वच्छन्द उद्दाम लौटा दो कलित
सलिल राग को काह निहारी ओहू
जागहु दीना समर जतन पहिं हर्षित
रनधीर मानहुँ पै दिए दमक गुलशन

11. अरुणिमा

अमरूद लीची तरबूज आम
आओ खाओ मेरे प्यारे राम
उछलो – कूदो ख़ुशी मनाओ
सब मिल एक साथ हो जाओ

गर्मी आयी , आयी बरसात
झूम – झूम झमाझम की रात
काले – काले अन्धियारे बादल
गड़ – गड़ , गड़ – गड़ कौन्ध गदल

स्वच्छन्द मुल्क का परिन्दा हूँ
मैं हूँ इस घोंसले का बाशिन्दा
आचार्यों के बड़प्पन का क्या नज़ीर !
उनके निकेतन की क्या अजिर !

देने आया मुबारकबाद ईद त्योहार
पैग़म्बर मोहम्मद का रहनुमा अनाहार
भाई – बहनों का अटूट बन्धन है
प्रेम के धागों से होता रक्षाबन्धन है

विजयादशमी है विजय का सन्देश
कर्तव्य मर्यादा सत्यनिष्ठा का रहा उपदेश
दीपोत्सव आया आओ सब दीप जलाएँ
घर में ढ़ेर सारी हर्षोल्लास लाएँ

ठण्डी – ठण्डी हवाओं के सङ्ग
सब हो रहे हैं यहाँ अंग – बङ्ग
वसन्त ऋतु मौसम बड़ा सुहाना
खेचर नाद क्या चुहचुहाना !

खालसा पन्थ की आदि ग्रन्थ महिमा
गुरु पर्व प्रतिष्ठापक अरुणिमा
देखो क्रिसमस डे की प्रभा सितारा
ईसा मसीह आमद का अंतर्धारा

12. ऐ सुशान्त

ऐ सुशान्त कहाँ है आप
लौट आएँ अब इस धरा पर
क्या थी उलझनें यहाँ ?
क्यों गए इस खलक से ?
कहाँ गए ? , अब कैसे खोजूँ ?
इस रञ्जभरी भव छोड़
कहाँ अंतर्हित हो गए आप ?
सपनों के बहार में आ जा
नहीं तो मेरे कभी ख़्वाबों में
झलक का भी एक पैग़ाम दे जा
ऐ गीर्वाण सुन न मेरी सार
आपको परवाह नहीं मेरी !
मेरी प्राण प्रतिष्ठा हो आप
तेरी विरह अग्नि , रञ्जीदा मेरी
इस भग्न हृदय का क्या करूँ मैं ?
यह वेदना तो क्षणभङ्गुर नहीं
तन – मन की व्यथा प्रबल मेरी
कैसे समझाऊँ अंतः करण को ?
श्रद्धायुक्त करपात्र में क्या कहूँ ?
अनन्तर ही कभी पनाह देने आ जा

13. जञ्जीर

जञ्जीर में मुझे मत बान्धों
मैं उड़ने वाला परिन्दा हूँ
दबाव तले बोझ बनें हम
घूँट – घूँट कर जी रहें हम

तप रहें मोहमाया जाल से
बच – बचकर जी रहें हम
मुझे बेचैनी है , इस जीवन में
कोई साथ नहीं , सहारा नहीं

एक भी नीन्द सो लूँ चैन का
तन – मन – धन , व्यथा रहित
सारा जगत क्षणभङ्गुर है
भूल जाऊँ सदा इस जीवन को

कब आए वो रैन बसेरा ?
जन्म – जन्म तक नाता न तोड़ू
उड़ जाऊँ मैं उन हवाओं में
नई हौंसलें से नए उड़ान भर दूँ

परिन्दा की तरह स्वच्छन्द हो जाऊँ
जहाँ मिले सदा तरुवर की छाया
छूम लूँ उन तमाम बुलन्दियों को
सङ्घर्षरत दुनिया का रसपान करूँ

14. दावाग्नि

विश्वपटल का हो रहा खतरा
मनुष्य सभ्यता के दोहन से
तनुधारी मरणोन्मुख रोदन
सर्वव्यापी विषदूषण है
त्राहिमाम – त्राहिमाम करता जग
हो रहा नापाक त्रिविधवायु है

दावाग्नि , अनुर्वरा , अनावृष्टि धरा
कङ्गाल हो रहा है विश्वधरा
वीरवह की है अभिवृद्धि
है खौल रहा पटल काया

मासूमियत का है चित्कार
क्यों हो रहा है हीनाचार ?
बेरोज़गारी का मजमा है
क्यों कर रहें आत्मदाह ?

सत्य – आस्था का दुनिया नहीं
अभिताप का तशरीफ़ रहता
असामयिक तबदीलन से
हो रहा प्रकृति का पतन

15. कलम

अब कलम टूट पड़ेगी ,
अन्यायों के खिलाफ ।
भ्रष्टाचार के उपद्रवों से ,
अब चुप नहीं बैठेंगे ।
धर्म – अधर्म के मतभेद नहीं ,
अत्याचारों का आतङ्क है ।
पिता – पुत्र में अंतरभेद नहीं ,
जहाँ जाएँ कलयुगी विनाश है ।
हम कर्तव्यपरायणता भूल रहें ,
भूल रहें महाकाव्यों का सार ।
घूसखोरी की अतिभय से ,
दीन – हीन तड़प रहें हैं ।
क्या है ? , क्या होगा जमाना ?
ईश्वर भी आश्चर्य है !
सत्य – झूठ के अंतरभेद नहीं ,
पैसों के बल से बिक जाते हैं ।
दोषी , निर्दोषी बन जाते हैं ,
फंस जाते हैं निस्सहाय ।
न्याय – अन्याय दिखावा है ,
सत्यमेव जयते भी है मिथ्या ।

16. एकान्त

एकान्त जीवन का आधार है
आनन्दमय व चरमोत्कर्षक
अनुरक्त हो अंतः करण में
आत्मविस्मृत बेसुध – सा

अंतर्मुखी वृत्तियाँ अनुरूपण
जग – संसार स्वच्छन्द हो
चान्दनी रात के सितारे मनोरम
शून्यता – अशब्दता अपार हो

मन्द – मन्द बहती पवनें
छन्द – छन्द हिलते पल्लव
सागर की कलकल करती नीर
अनुपम रहा पर्वत हिमालय

तत्वों के केन्द्र बिन्दुओं ‌ से
रवि का है ऊर्जा निदाग
शून्य – शान्त जीवन सरोवर में
अंतर्धान हो जा आत्म गात में

प्रकृति की कृती कृति है
ईश्वरप्रदत का रत रति है
जन्म – मरण के यथार्थ से
सर्वदा सदाव्रत रहता एकान्त

17. चल मुसाफिर

मुश्किल भरी ज़िन्दगी में ,
सङ्घर्षरत का दुनिया है ।
अभिजय का है सरताज ,
जो महासमर का अर्जुन है ।

चल मुसाफिर , अभ्यस्त हो जा ,
चन्द्रहास का अब वक्त आया है ।
कोयला से हीरा बनने की तमन्ना ,
दीवानगी की प्रतिच्छाया है ।

तू तोड़ दे उस जञ्जीरों को ,
आफ़त की धारा का भञ्जन कर ।
रख हौंसला , वक्त का आसार है ,
प्रारब्ध को बदलने गर्जन का आसरा है ।

जीत की आरज़ू हर मानस का हो ,
विश्वपटल का यही है पुकार ।
कर अटूट फैसला , उन्माद रख ,
यथार्थ में जीत का हवस का आस है ।

पराभव का अफ़साना दूभर नहीं ,
जहाँ विजय का भी राह है ।
आन – बान – शान की दास्ताँ ,
बुलन्दी साहचर्य का परवाना है ।

18. समय का परिन्दा

रे उड़ता समय का परिन्दा ,
थोड़ा रुक , थोड़ा ठहर जा…
इतना क्यों है बेताब ?
नज़ाकत दुनिया को देख ।
रक्तरञ्जित हो रहा संसार ,
गर्वाग्नि प्रज्वलित हो रहा ।
पसरा है बीमारी का ताण्डव ,
क्यों हो रहा है विकराल ।
ओहदे के पौ बारह हैं ,
धरणी सङ्कुचित हो रहा ।
जीवन के दुर्दशा हिरासत में ,
मालिक – मुख़्तार का जमाना रहा ।
गोलमाल का सदाव्रत रहता ,
रुखाई का नौबत दुनिया है ।
दौलत के प्रलोभन से ,
रिआया का अपघात है ।
मिथ्या का ही फ़ितरत ,
निश्छलता का भग्न हृदय है ।
बेआबरू का है इज्जत ,
अवधूत हो रहा मानवीयता ।

19. ऐ नगेश हिमालय !

ऐ नगेश ! रक्षावाहिनी !
ऐश्ववर्य – खूबसूरती महान !
प्रातः कालीन का सौन्दर्य तुङ्ग ,
रत्नगर्भा मानदण्ड हो !
मार्तण्ड नीड़ – पतङ्ग में तान रहा ,
पुरुषत्व समवेत महीधर हो ।
जम्बू द्वीपे के हिम उष्णीष ,
सिन्धु – पञ्चनन्द – ब्रह्मपुत्र के चैतन्य ।
तू ही ब्रह्मास्त्र – गाण्डीव हो ,
रत्न – औषधि – रुक्ष का वालिदा ,
हिमाच्छादित , वृक्षाच्छादित हो ।
युग – युगान्तर तेरी महिमा ,
गौरव – दिव्य – अपार ।
टेथिस सागर प्रणयन है ,
जहाँ ऋषि – मुनियों का विहार ।
जीवन की अंकुरित काया ,
सर्वशक्तिमान नभ धरा हो ।
प्रियदर्शी – पारलौकिक – अजेय ,
सांस्कृतिक – आर्थिक अविनाशी हो ।
सुखनग – अभेध – जिगीषा ,
शाश्वत ही पथ प्रदर्शक हो ।
कैसी अखण्ड तेरी करुणा काया ?
तड़प रही विश्वपटल का राज ।
सदा पञ्चतत्व में समा रहा ,
कोरोना के रुग्णता का हाहाकार ।
मुफ़लिस कुटुम्ब नेस्तनाबूद हुए ,
मरघट हो रहा कृतान्त का समागम ।
क्यों मौन है ऐ विश्व धरा ?
ले अंगड़ाई , हिल उठ धरा ।
कर नवयुग शङ्खनाद का हुँकार ,
सिंहनाद से करें व्याधि विकार ।

20. माँ

सृष्टि की जननी नारी हो ।
ममतामयी वात्सल्य हो ।
पूजा – भूषण – मधुर का सत्कार हो ।
अर्धनारीश्वर साम्य का उपलक्ष हो ।

तू सरस्वती माँ की वाणी हो ।
कोकिला का पञ्चम स्वर हो ।
सभ्यता व संस्कृति का प्रारम्भ हो ।
खेती व बस्ती का शुरुआत हो ।

तू ही ज्योतिष्टोम का स्वरूप हो ।
वेदों की इक्कीस प्रकाण्ड विदुषी हो ।
सोमरस की अनुसरण हो ।
ब्रह्मज्ञानिनी का अनुहरत हो ।

मीराबाई जैसे बैरागी हो ।
लक्ष्मीबाई जैसे राजकर्ता हो ।
सावित्री जैसे पतिव्रता नारी हो ।
लता मंगेशकर जैसे स्वर साम्राज्ञी हो ।

विश्वसुन्दरी की ताज हो ।
प्रलय का नरसंहार भी हो ।
तू प्रियवन्दा‌ व पतिप्राणा हो ।
” बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ ” का नारा हो ।

Language: Hindi
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